पिछले हफ्ते केंद्रीय पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्री ने गिद्धों के संरक्षण के लिए वल्चर एक्शन प्लान 2020-25 की शुरुआत की। यह पर्यावरण प्रेमियों के लिए और खासकर गिद्धों के संरक्षण पर काम करने वालों के लिए किसी खुशखबरी से कम नहीं था। वजह यह है कि 1990 से ही दुनिया भर में गिद्धों की संख्या खतरनाक तरीके से नीचे गिरती जा रही है।
साल 1990 से ही देश-दुनिया में गिद्धों को बचाने पर भी काम चल रहा है। इनको बचाने के प्रयासों के चलते इनकी संख्या में गिरावट की रफ्तार कुछ कम जरूर हुई है, पर जिस स्तर से इसके संरक्षण पर काम हुए, उस लिहाज से सफलता नहीं मिली है। भारत में गिद्धों की मुख्य रूप से नौ प्रजातियां पाई जाती हैं। नब्बे के दशक के बाद गिद्धों की जिन तीन प्रजातियों पर सबसे ज्यादा संकट आया, उनमें वाइट बैक्ड वल्चर्स (सफेद पीठ वाले गिद्ध), लॉन्ग बिल्ड वल्चर्स (लंबी चोंच वाले गिद्ध) और स्लेंडर बिल्ड वल्चर्स हैं। आंकड़े बताते हैं कि इनकी संख्या में 90 प्रतिशत से अधिक की कमी आई थी।
हरियाणा सरकार और बॉम्बे नैचरल हिस्ट्री सोसायटी (बीएनएचएस) ने मिलकर वर्ष 2001 में हरियाणा के पिंजौर में जटायु गिद्ध संरक्षण प्रजनन केंद्र बनाया। वल्चर सेफ जोन कार्यक्रम के तहत सैटलाइट ट्रांसमीटर लगाकर सुरक्षित स्थानों पर गिद्धों को छोड़ने की योजना थी। ट्रांसमीटर तैयार नहीं हो पाने की वजह से इन्हें रिलीज नहीं किया जा रहा था। दो हफ्ते पहले ट्रैकिंग डिवाइस लगाकर बीर शिकारगाह सेंचुरी में आठ गिद्धों को छोड़ा गया। अनुकूल परिस्थितियां देखकर और भी गिद्धों को छोड़ कर देखा जाएगा कि किन कारणों से उनकी मौत हो रही है। हालांकि पक्षी विशेषज्ञों का मानना है कि अचानक गिद्धों की संख्या कम हुई तो इसके दो प्रमुख कारण थे – पशुओं में दर्दनिवारक दवा डाइक्लोफिनेक का बेरोकटोक इस्तेमाल और गिद्धों के घटते आहार। हालांकि वर्ष 2006 में डाइक्लोफिनेक के इस्तेमाल पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया गया। फिर भी डाइक्लोफिनेक की तरह नुकसान पहुंचाने वाली अंदाजन दस दवाएं इस्तेमाल हो रही हैं।
जहां तक गिद्धों के सामने उपस्थित भोजन की समस्या है, तो यह एक ऐसा पक्षी है जिसका जीवन मृत पशुओं पर निर्भर करता है। पहले गांवों में पशुपालन का खूब प्रचलन था और जब पशु मर जाते थे तो उन्हें खुले में फेंक दिया जाता था। यही गिद्धों का आहार बनते थे। समय बदला, परिस्थितियां बदलीं। घरों से मरे पशु उठाने वाले नहीं रहे और स्लॉटर हाउसों में वृद्ध पशुओं को भेजा जाने लगा। हालांकि गिद्धों की संख्या कम होने के पीछे कुछ और भी कारण गिनाए जा सकते हैं। जैसे रेलवे ट्रैक पर दुर्घटनाग्रस्त पशुओं को कोई उठाकर नहीं ले जाता है। गिद्धों को यहां भी भोजन मिल जाता है। इसलिए झुंड के झुंड गिद्ध यहां उमड़ते हैं। इसके चलते कई बार ट्रेन की चपेट में आकर झुंड में गिद्ध मर जाते हैं। गिद्ध की बनावट ही ऐसी है कि वे सीधे जमीन पर उतर कर ठहर नहीं सकते। इसलिए प्लेन की तरह ये पहले उतरते हैं और समतल पर कुछ दूर तक दौड़ लगाते हैं, जैसे प्लेन रनवे पर दौड़ती है। रोड के किनारे इन्हें भोजन तो मिल जाता है, पर अक्सर पिघले अलकतरे की चपेट में आकर भी ये जान गंवा बैठते हैं।
हम अपने घरों के आसपास पहले काफी संख्या में सफेद पीठ वाले गिद्ध को देखते थे। अब ये दिखाई नहीं पड़ते हैं, या बहुत कम दिखते हैं। ताड़ या ऊंचे पेड़ों पर घोंसला बनाकर अंडे देने वाले ये गिद्ध पेड़ों की कटाई के चलते भी हमारी नजरों से लापता होने लगे। कुछ प्रचलित भ्रांतियों ने भी गिद्धों को अपना शिकार बनाया है। मटका जैसी आपराधिक गतिविधियां गिद्धों की जान का दुश्मन बन जाती हैं। इसमें सट्टेबाजी करने वाले गिद्धों से काला जादू करते हैं। उनका मानना है कि गिद्ध की हड्डी रखने से उनका भाग्य काम करता है। आदिवासी इलाकों में लोग यह मानते हैं कि गिद्ध के मीट से अस्थमा जैसी बीमारी दूर होती है। प्राकृतिक रूप से गिद्धों को अनुकूल वातावरण देने के लिए ऐसे इलाकों को चिह्नित करना होगा, जहां वे इस समय सर्वाइव कर रहे हैं।
दिलीप लाल
(लेखक पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)