भारत एक लोकतांत्रिक देश है जिसमें सभी को अपनी बात रखने, पहुंचाने का अधिकार है बर्शते बिना किसी को हानि पहुंचाए। आज़ादी की लड़ाई में आंदोलन ने जिस तरह कि भूमिका निभाई वो कुछ बात ही थी लेकिन आए दिन भारतीय आंदोलन नए तरीके से पुराने और ओझल मुद्दों के साथ हो रहा है। पिछले डेढ़ महीने से दिल्ली की सड़क पर लाखों की तादाद में प्रदर्शन कर रहे है किसानों का आंदोलन भी कुछ कहना चाहता है। आमतौर पर किसानों के आंदोलन या उनके विद्रोह की शुरुआत सन् 1859 से हुई थी, लेकिन चूंकि अंग्रेजों की नीतियों पर सबसे ज्यादा किसान प्रभावित हुए, इसलिए आजादी के पहले भी इन नीतियों ने किसान आंदोलनों की नींव डाली। ये आंदोलन तीन कृषि कानून के विरोध में हो रहा है। सरकार के अनुसार उनसे किसान की आय बढ़ सकती है लेकिन ये तो भारत की नब्ज ही जानती है कि स्वतंत्रता के इतने बरस बाद भी किसान तो वहीं का वहीं है, कल खेत में तो आज सड़कों पर बैठकर रो रहा है, तो आखिर बदला क्या? अभी का आंदोलन पूरी तरह ग्रामीण भारत से जुड़ा हुआ है जिसमे पीढ़ी दर पीढ़ी अपने खेती को बचाए रखने के लिए जीतोड़ मेहनत कर रही है।
जब सब लोग दीवाली पर बोनस, सर्दी में रजाई और पेंशन जैसी चीजों को मजा लेते हैं जब पैरों में बिवाइयां होने के बावजूद भी किसान गर्मी, सर्दी और बारिश की फिकर ना करते हुए पानी में जाकर अपनी फसल और देश का पेट पालने के लिए मेहनत करता नजर आता है। उसके बच्चे का आज भी स्कूल में फीस माफी का नोटिस जाया करता है और रही आंदोलन की दरकार तो कानून की ज्यादा समझ मुझे लगता है किसानों को है योंकि वो उत्पादन से लेकर बेचे जाने तक पिसता रहता है। भारत में किसान होना एक समय पर गर्व महसूस करा सकता था लेकिन आज के समय में सबसे बेकार है और ये नुकसान का सौदा होता नजर आ रहा है। कृषि प्रधान देश बस कहने में ही सौगात देता है। आज मुझे पूर्व प्रधानमन्त्री और किसान नेता चौधरी चरण सिंह जी की एक बात याद आ गई जिसमें वो कहते थे कि अगर विकसित देश बनाना है तो सबसे पहले ग्रामीण क्षेत्रों को ध्यान में रखकर ही कुछ रणनीति पेश करना, खैर वो होते तो आज सौभाग्य से देश का प्रधान भी किसान ही होता। ग्रामीण किसानों ने आत्महत्या का रास्ता चुना, उसका कारण है भारी कर्ज़, बिजली और ट्यूबवेल बिल का जमा ना हो पाना, फसल का सही मूल्य प्राप्त ना होना।
आज सरकार ने ऐसी महामारी के बीच जब ये तीन कानून पेश किए हैं तो किसान रोष व्यक्त कर रहा है। ऐसा नहीं है कि ये आंदोलन कुछ नया है किसानों का आंदोलन तो 100 साल से चल रहा है बस सरकारें ओर महकमे बदले हैं। इस देश मे सरकारी महकमे बहुत थे लेकिन या अब दिख रहे हैं? सरकारी मंडियां आज नहीं तो कल दिखेंगी भी नहीं। अगर एक देश- एक राशन कार्ड, एक देश-एक इलेशन भारत में अपनाया जा सकता है तो एक देश एक एमएसपी भी लागू हो सकता है। अगर देखा जाए तो आंदोलन की शुरुआत एक शति, एकता का प्रदर्शन होता है और यही लोकतंत्र की पहचान है। किसानों के बीच जिस स्तर की बातचीत होनी चाहिए वैसी हो नहीं रही है और दूसरी ओर देश का सूचना क्रांति कि धरोहर चौथा स्तंभ होने के नाते मीडिया की जिम्मेदारी भी खत्म होते दिख रही है, लगभग 150 चैनल है जिनमे बस 5 मिनट का कुछ किसान परिवार दिखाया जाता है या फिर अगर सरकार कुछ दलील पेश करती है तो वो आता है। पहली बार भारत में किसानों को अपनी बात पहुंचाने के लिए खुद अखबार निकालने का निर्णय करना पड़ा। यह समय है, जब हम कृषि को भी बदलती दुनिया की नजर से देखें, ताकि किसानों को उनका हक मिल सके और उनके उत्पाद खरीदने वालों की जेब न कटे।
ये बात सभी स्तर को भलीभांति समझनी होगी की आंदोलन छोटा हो या बड़ा उसमे भी मुद्दे होते है जो कहीं ना कहीं आम आदमी से जुड़े हों। हर मुद्दा सरकार की नजर में अहम होना आवश्यक है योंकि वो जानता के भरोसे पर खरा उतरने कि शपथ लेते हैं। और ये एक अजीब विडंबना है देश की एक सरकार कोई भी ऑर्डिनेंस पास करते वक्त उसे ही भूल जाती है जिसके लिए कानून लाए जाते है।अगर सरकार में किसानों कि बदहाली समझने वाले कोई नहीं है तो कृषि विशेषज्ञों को और किसान संगठन को चर्चा में बुलाती तब जाकर कुछ डिसीजन लेती। आंदोलनकारी किसान ने बॉर्डर पर बैठे हुए सरकार के नाम नोटिस लिखकर अपनी जान बस इसलिए दी यूंकि कर्ज़ का बोझ उससे सहा नहीं जाएगा।
एक और किसान ने तो यह कहकर प्राण न्योछावर कर दिए की हो सके तो बिजली का बिल मेरे शरीर के सभी अंग बेचकर दे देना और सरकार के नाम नोट लिख दिया है। या इस पर कोई प्रतिक्रिया सरकार की नहीं होनी चाहिए की कैसे एक व्यक्ति जिसकी सलाना कमाई खेत कि बुवाई और बिल में चली जाती है उसे थोड़ी सी मदद की जाए। ये योजनाएं, जुमले ओर थोड़ा सा पैसा भुगतान इस देश कि सालों से वेंटिलेटर पर पड़ी ग्रामीण किसानी नब्ज़ को ठीक नहीं सकती है इनके विकास के लिए कोई ठोस कदम उठाएं तभी समूचे विश्व में कृषि प्रधान देश कि साख बच पाएगी और सिस्टम को ये मानना होगा कि हर आंदोलन की आवाज़ को सुना जाए, समझ जाए और समाधान कराया जाए योंकि कोई स्थान, कोई कुर्सी कोई जिमेदारी उसी वक्त तक रहती है जब तक उसकी दरकार होती है।
प्राची राठी
(लेखिका मासकॉम की छात्रा है, ये उनके निजी विचार हैं)