मौजूदा किसान आंदोलन के संदर्भ में स्वाधीन भारत में खेती-किसानी से जुड़े दो ऐतिहासिक वाकयों को जरूर याद किया जाना चाहिए। 10 जनवरी 1959 और 15 अप्रैल 1993 के इन दोनों वाकयों का खेती की संस्कृति और व्यवहार पर अलग-अलग असर देखने को मिला। 10 जनवरी 1959 को यूएन ढेबर की अध्यक्षता में हुए नागपुर कांग्रेस महाधिवेशन में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने सहकारी खेती का प्रस्ताव रखा था। नेहरू के इश प्रस्ताव को उत्तर प्रदेश कांग्रेस में दूसरी पांत के नेता रहे चौधरी चरण सिंह ने जोरदार चुनौती दी। बेहद प्रभावी तरीके से उन्होंने सहकारी खेती के प्रस्ताव को बिंदुवार खारिज किया। नतीजा यह कि नेहरू का प्रस्ताव नाकाम रहा। लेकिन 15 अप्रैल 1993 को मराकेश में हुए समझौते का वैसा हश्र नहीं हुआ।
मराकेश समझौता मोरक्को के इस चौथे बड़े शहर में विश्व व्यापार संगठन के प्रस्तावों पर तब के वाणिज्य मंत्री प्रणब मुखर्जी ने हस्ताक्षर किया था। इसका जबरदस्त विरोध हुआ। वामपंथी दलों और स्वदेशी जागरण मंच ने इसके खिलाफ देशव्यापी प्रदर्शन किया। वामपंथी दलों की अगुआई में लाल किला मैदान में रैलियों का रेला लगता रहा, रामलीला मैदान से संसद तक कई मार्च आयोजित हुए। लेकिन विरोध अपनी जगह रहा और खेती-किसानी में विश्व व्यापार संगठन के प्रस्तावों के मुताबिक बदलाव होते गए। किसानों ने कभी खुशी-खुशी तो कभी मन मारकर इन्हें स्वीकार किया। भारत एक लोकतांत्रिक देश है, लिहाजा असहमति में आवाजें उठती रहेंगी। लेकिन मराकेश समझौते के बाद के हालात से यह साफ हो गया है कि देश उसी अंदाज में आगे बढ़ता रहेगा।
अब न तो चरण सिंह वाला जमाना रहा और न वैसी कोई जरूरत रह गई है। हालांकि खेती में पहले भी कई बड़े बदलाव हुए थे। अगर ऐसा नहीं होता तो 1950 के पांच करोड़ टन की तुलना में आज पचास करोड़ टन अनाज नहीं उपज रहा होता। इन्हीं संदर्भों में खेती में होने वाले बदलावों को समझा जा सकता है। भारत उलटबांसियों का भी देश है। खेती-किसानी भी उलटबांसी से नहीं बची है। एक तरफ कुछ किसान बदहाल हैं तो दूसरी तरफ ऐसे अन्नदाता भी हैं जिन्होंने अपनी छोटी जोत वाली खेती का न सिर्फ रूप बदल दिया है, बल्कि अपनी माली हालत भी बेहतर कर ली है।
जानकारों के मुताबिक आने वाले दिनों में नवाचार (इनोवेशन) की ऐसी कहानियां खेती में प्रेरणा का स्रोत बनेंगीं। कुछ हद तक बन भी रही हैं। खेती में बदलाव दो वजहों से होंगे। कुछ बदलाव सामाजिक और सार्वजनिक वजहों से होंगे तो कुछ किसानों की निजी वजहों से। साल 2010-11 की कृषि जनगणना के मुताबिक देश में 10.05 प्रतिशत किसानों के पास दो हेक्टेयर से चार हेक्टेयर के बीच खेती लायक जमीन है। इन्हें अर्द्ध-मध्यम किसान कहा जाता है l इसी तरह चार से दस हेक्टेयर की खेती वाले मध्यम किसानों और दस हेक्टेयर से ज्यादा खेती वाले बड़े किसानों की हिस्सेदारी 4.98 प्रतिशत है। बाकी 84.97 फीसद किसान ऐसे हैं, जिनके पास दो हेक्टेयर से कम खेती है।
जाहिर है, हमारा देश लघु एवं सीमांत किसानों का देश है। यहां करीब 14 करोड़ जोतें हैं। इनमें बड़ी संख्या छोटी जोतों की है। यह भी सच है कि खेती वाली जमीन का रकबा लगातार घटता जा रहा है, लेकिन उसकी तुलना में कृषि-निर्भर जनसंख्या में कमी नहीं आ रही। बढ़ती जनसंख्या का पेट भरने के लिए सामाजिक और निजी, दोनों ही वजहों से किसानों में नवाचार बढ़ेगा। आने वाले दिनों में यह बदलाव इनडोर या ग्रीनहाउस खेती के रूप में दिख सकता है। इसकी शुरुआत जापान में हो भी गई है। जापानी कंपनी सोनी वहां के मियागी प्रांत में 25 हजार वर्ग फीट में इनडोर खेती की शुरुआत कर चुकी है। भारत में भी ग्रीन हाउस खेती दिखने लगी है।
आगामी दिनों में वर्टिकल खेती बढ़ने की भी संभावना है। दुनिया भर में आम लोगों को सहूलियत देने के लिए शहरीकरण पर जोर दिया जा रहा है। ब्रिटेन में वर्टिकल यानी छत पर खेती लगातार बढ़ रही है। भारत भी इससे अछूता नहीं है। इसकी वजह से छत, बालकनी और रैक पर खेती और बागवानी का चलन शुरू हो रहा है। अपने देश के महानगरों में भी ऐसे नजारे दिखने लगे हैं। कई विशेष वेबसाइटें ऐसी खेती-किसानी की न सिर्फ जानकारी दे रही हैं, बल्कि इसके लिए लोगों को ट्रेनिंग भी दे रही हैं। अगले दशक में इस चलन को भारत में भी बढ़ावा मिल सकता है।
भारत में ज्यादातर जोतें छोटी हैं और अधिकतर किसानों के पास मजबूत आर्थिक आधार नहीं है। लिहाजा नवाचारों को बढ़ावा देने में कॉरपोरेट कंपनियों का सहयोग ज्यादा जरूरी होगा। आज बेशक कांट्रैक्ट खेती का विरोध हो रहा हो, लेकिन हकीकत का दूसरा पहलू यह है कि भारती एयरटेल पश्चिम बंगाल के मिदिनापुर जैसी जगहों पर सब्जियों की खेती कांट्रैक्ट पर अरसे से करा रही है और अरब देशों में उन्हें बेच रही है। आईटीसी काफी समय पहले आशीर्वाद ब्रांड के साथ किराना बाजार में उतर चुकी है। आटा और बेसन वह अरसे से बेच रही है। इसी तरह टाटा भी दाल आदि का कारोबार कर रहा है। दरअसल इनकी पैदावार कांट्रैक्ट खेती के ही जरिए हो रही है। मैकडॉनल्ड अपने बर्गर में इस्तेमाल होने वाले सलाद के पत्तों की पैदावार नासिक और नीलगिरि में कराता है।
स्मार्ट खेती जाहिर है, कंपनियों के सहयोग से किसानों का एक हिस्सा स्मार्ट खेती में उतर चुका है। अन्न उत्पादन और पेट भरने के मोर्चे पर भारत 1965 की स्थिति से बहुत आगे निकल आया है। लोगों का ध्यान अब अन्न की पौष्टिकता और उसके जैविक उत्पादन पर है। इसका परिणाम यह हुआ है कि रासायनिक खाद और कीटनाशकों के इस्तेमाल के बिना पैदा की गई कृषि उपजों की मांग बढ़ रही है। इसकी वजह से जैविक उपज का दायरा बढ़ रहा है। तकनीक आधारित, नवाचार केंद्रित, जैविक और स्मार्ट खेती पर सदी के तीसरे दशक में बाकी दुनिया के अलावा भारत का भी जोर बढ़ेगा और भारतीय किसान कभी खुद तो कभी कारपोरेट के संग मिलकर ऐसी खेती का सहभागी बनेगा।
उमेश चतुर्वेदी
(लेखिका एक पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)