पंजाब के किसानों के मौजूदा आंदोलन में कई सबक हैं। उनमें से एक है कि राजनीति छोटा खेल है, एक 20-20 मैच, जबकि अर्थव्यवस्था लंबा, पांच दिवसीय टेस्ट मैच है। पंजाब के किसान 20-20 खेल रहे हैं और सरकार टेस्ट मैच। इस बेमेलपन के कारण दूसरा सबक यह है कि लोकतंत्र में सुधार मुश्किल है। एक लोकवादी एक रुपये प्रति किलो चावल देने का वादा कर सुधारक को चुनाव में हरा सकता है। इसीलिए, सफल सुधारक, सुधारों को बेचने में ज्यादा समय खर्च करता है, उन्हें लागू करने में कम। भारत के सुधारकर्ता इस मामले में असफल रहे हैं और इसीलिए 1991 से 29 साल बाद भी भारत में सुधार चुपके से होते हैं और भारतीय अब भी सोचते हैं कि सुधार अमीरों को अमीर और गरीबों को गरीब बनाते हैं, जबकि इसके विपरीत कई प्रमाण हैं। प्रधानमंत्री मोदी यह सबक भूल गए और जून में तीन कृषि कानूनों को बनाने में देश का समर्थन हासिल नहीं किया। उनकी सरकार ने विपक्ष, राज्यों या किसान संगठनों से बात किए बिना, संसद के जरिए कानून थोपने का रास्ता चुना। इसके ये अफवाहें फैलीं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) व सरकारी खरीद बंद हो जाएगी। वे अब भी इसे सुधार सकते हैं। तीसरा सबक यह है कि जब बहुसंयक शांत और असंगठित हों तो छोटे, संगठित और वित्तपोषित समूह लोकतंत्र में राष्ट्रीय हित को लूट लेते हैं। आंदोलन के पीछे आढ़तिया, कृषि उपज विपणन समिति (एपीएमसी) मंडियों के खरीद एजेंट हैं, जिनका 1500 करोड़ रुपये सालाना कमीशन का नुकसान होगा।
साथ ही पंजाब के अमीर किसान हैं, जो भारत के उन 6 फीसद किसानों का हिस्सा हैं, जिन्हें एमएसपी का लाभ मिलता है। दोनों शतिशाली हैं। आढ़तिया चुनावों में पैसा लगाते हैं और असर राजनेता और कृषि संघों के नेता होते हैं। तीन कृषि बिल किसानों को तीन आधारभूत आजादी देते हैं। पहली, फसल कहीं भी बेचने की आजादी, जिससे मंडी के कार्टल का एकाधिकार खत्म होगा। दूसरी, स्टॉक रखने की आजादी, जिसमें अब तक आवश्यक सामग्री अधिनियम के तहत स्टॉक करने की सीमा के कारण बाधा आती थी। तीसरी, किसानों को वायादा बाजार अनुबंध करने की और अपना जोखिम व्यापारी को देने की आजादी, जिससे उम्मीद है कि अलाभकारी भूमि को अन्य काम के लिए देने और लाभ साझा करने की आजादी मिलेगी। एपीएमसी एक बेकार संस्थान है, जिसे किसान की सुरक्षा के लिए बनाया गया था, पर वही शोषण करने वाली बन रही है। एकाधिकार कार्टेल किसान की उपज की कम कीमत तय करते हैं, जिससे बिक्री प्रभावित होती है। सुधारों ने यह एकाधिकार तोड़ा है और जून के बाद से मंडी के बाहर बिक्री में इजाफा हुआ है, जबकि मंडी बिक्री में 40 फीसद गिरावट आई है। इस सुधार के बाद निर्यात पर भी स्थिर नीति की जरूरत है। मौजूदा ‘शुरू करो-बंद करो’ नीति के कारण हाल ही में प्याज के निर्यात पर रोक लग गई थी। यही कारण है कि किसान एमएसपी के लिए लालायित रहते हैं। पंजाब के किसानों व संघों की प्रमुख मांग है कि एमएसपी को कानूनी अधिकार बनाया जाए।
यह बुरा विचार है योंकि इससे पंजाब के किसानों को वह उगाएंगे जो लोग नहीं चाहते। नतीजतन गेहूं व चावल का अतिरित और दाल का कम उत्पादन होगा। हर साल देश अतिरित अनाज उत्पादन के बोझ में दब जाता है। एमएसपी के कारण पंजाब का किसान पानी गटकने वाले चावल उगाता है, जिससे उसकी मिट्टी को नुकसान होता है, जलस्तर कम होता है। पंजाब के किसान का दोष नहीं है। वह वही उगा रहा है, जिसके लिए उसे प्रोत्साहन राशि मिल रही है। ये सुधार ज्यादा उत्पादकता से किसान की आय बढ़ाना चाहते हैं। भारतीय खेतों की पैदावार प्रतिद्वंद्वियों से एक तिहाई ही है। चीन में भारत की तुलना में आधी कृषियोग्य भूमि है, जबकि पैदावार हमसे दोगुनी है। समस्या यह है कि 80 फीसद भारतीय किसानों के पास दो हेटेयर से कम जमीन है। वे वैज्ञानिक विधियों के इस्तेमाल और उच्च मूल्य वाली फसलों से अपनी उत्पादकता बढ़ा सकते हैं। लेकिन इसके लिए पूंजी व तकनीक का संचार जरूरी है। हालांकि किसान के पास इसके लिए पैसा नहीं है।
इसीलिए, अगला सुधार ऐसा हो जो किसानों को अपनी जमीन ऐसे कृषि-पेशेवरों को लीज पर देने की आजादी दे, जिनके पास पूंजी और तकनीक हो और बदले में वे उसी जमीन में साझेदार और काम करने वाले बन सकें, जिससे दूसरी हरित क्रांति का आधार तैयार हो। इस परिदृश्य का नकारात्मक पहलू यह डर है कि बड़े बिजनेस कृषि पर कब्जा कर लेंगे। इसका जवाब है कि किसान खुद को कोऑपरेटिव, किसान-उत्पादक संगठनों, जैसे अमूल, के जरिए संगठित करें। किसानों का एमएसपी खत्म होने का दूसरा डर निराधार है। सरकार को किसानों को बताना चाहिए कि खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत लाखों राशन दुकानों के लिए चावल और गेहूं की खरीद करने की जरूरत होगी ही। कोई भी सरकार खाद्य सुरक्षा हटाने का राजनीतिक जोखिम नहीं लेगी। इसलिए किसान निश्चित रहें। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि एमएसपी कानूनी अधिकार बन जाए। एक आदर्श दुनिया में, कृषि सब्सिडियों के पूरे तंत्र की जगह ‘किसानों के लिए न्यूनतम आय’ को ले लेनी चाहिए। लेकिन फिलहाल तो ऐसा नहीं होगा।
गुरुचरण दास
(लेखक स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)