लोकतांत्रिक देश से कुछ उम्मीदें भी हैं

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लगातार दो बार बहुमत से सरकार बनाने वाले नरेंद्र मोदी देश के उस पुनरुत्थान का वादा करते रहे हैं, जैसा अभी तक नहीं देखा गया, लेकिन हो क्या रहा है? सिर्फ दो हफ्ते के अंदर दो वाक़िए हुए। पहला, ब्रिटिश उच्चायुक्त को बुलाकर जवाब तलब किया गया कि उनके देश की संसद ने भारत के किसान आंदोलन पर बहस कैसे की और दूसरा, सरकार और समर्थकों ने ‘फ्रीडम हाउस’ जैसी पश्चिमी संस्था पर इसलिए गुस्सा उतारा कि उसने भारतीय लोकतंत्र का दर्जा घटाकर ‘स्वतंत्र’ से ‘आंशिक तौर पर स्वतंत्र’ देश का कर दिया।

इससे पहले 1990 के दशक में भी ऐसा हुआ था, जब भारत दूसरे संकटों के अलावा कश्मीर और पंजाब में अलगाववाद से जूझ रहा था। इसके बाद से रेटिंग सुधर रही थी, लेकिन पिछले 9 साल में इसमें 9 अंकों की गिरावट आई है। स्वीडन के ‘वी-डेम’ फाउंडेशन ने भारत को निर्वाचित तानाशाही घोषित किया था। ‘वी-डेम’ भी पूरी तरह विदेशी और विदेशी पैसे पर चलने वाला फाउंडेशन है। इससे पहले, किसान आंदोलन के प्रति सहानुभूति जताते हुए कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो का बयान आ चुका था।

उस समय किसान आंदोलन के समर्थन में एक्टिविस्ट ग्रेटा थनबर्ग, मीना हैरिस, रेहाना और सूसन सारंडन के ट्वीट के खिलाफ भी विरोध किया गया था। जो कुछ चल रहा है उसे देखकर लगता है कि स्वीडन को कुछ मुश्किल का सामना करने के लिए तैयार रहना होगा। मेरे हिसाब से ये षड्यंत्र हो सकता है : थनबर्ग भी ‘वी-डेम’ और बसें बनाने वाली कंपनी स्कानिया की तरह स्वीडिश हैं। इस कंपनी ने हाल में एक रिपोर्ट जारी की है जिसमें कहा गया है कि उसके अधिकारियों को भारत में घूस देना पड़ा। इस तरह एक सीधी रेखा बन जाती है।

यानी मोदी के खिलाफ एक स्वीडिश साजिश चल रही है। ये एक मजाक है और आज के हंसी-मजाक से दूर वाले समय में ये साफ कर देना जरूरी है, लेकिन याद रहे कि भारत में बोफोर्स घोटाले की स्वीडिश जांच ने ही कांग्रेस को बर्बाद कर दिया था। सरकार की आपत्ति है कि हमारे मामलों में दखल देने वाले ये विदेशी कौन होते हैं? लेकिन जब भी हमारी ग्लोबल रैंकिंग बढ़ती है तब हम जश्न मनाने लगते हैं।

‘कारोबार करने की सुविधा’ देने के मामले में रैंकिंग में सुधार पर खुद प्रधानमंत्री कितने प्रसन्न होते हैं। या हमारा ‘ग्लोबल इनोवेशन इंडेक्स’ 52 से सुधर कर 48 हो जाता है और हम टॉप-50 में पहुंच जाते हैं तो उस पर कितनी खुशी जाहिर की जाती है! ऐसा तब भी होता है जब किसी भी मामले में भारत की ग्लोबल रैंकिंग बढ़ती है। अगर आप वाहवाहियों से खुश होते हैं, तो आलोचनाओं के लिए भी तैयार रहिए, चाहे यह ‘हंगर इंडेक्स’ में गिरावट हो या प्रेस की आजादी का सूचकांक या मानव विकास संकेत।

ये सब भी उतनी ही अहम सच्चाइयां हैं। प्रधानमंत्री को जब किसी विदेशी सम्मान से नवाजा जाता है तब खूब जश्न मनाया जाता है, लेकिन विदेशी मीडिया से आलोचना हमें पसंद नहीं है, क्योंकि वह पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं? 2014 और 2016 में ‘टाइम’ पत्रिका ने जब मोदी को ‘पर्सन ऑफ द ईयर’ घोषित किया तब हमें शिकायत नहीं हुई। 2012 में जिस ‘टाइम’ पत्रिका ने मोदी की तस्वीर अपने आवरण पर ‘मोदी मीन्स बिजनेस’ शीर्षक से प्रकाशित करके उन्हें उभरता हुआ पेश किया था, तब कहा गया था कि वह ‘गुजरात मॉडल’ की पैरवी कर रही है।

वही पत्रिका आज आलोचना की शिकार है। छोटी-सी बात यह है कि वाहवाही और सम्मान अगर स्वीकार्य है, तो आलोचना पर रोष क्यों? भारत और इसके वर्तमान नेतृत्व की लोकप्रियता और ऊर्जा की दुनिया तारीफ करती है। लेकिन वही दुनिया लोकतांत्रिक भारत से कुछ अपेक्षाएं रखती है। और जब उसे वे अपेक्षाएं पूरी होती नहीं दिखतीं तो वह शिकायत करती है। उसकी शिकायत पर ध्यान दिया जाना चाहिए, न कि इसके लिए उस पर वार किया जाए।

अभी सब कुछ खत्म नहीं हो गया है, हम अभी भी एक लोकतांत्रिक देश हैं, लेकिन खामियां गहरी होती जा रही हैं, वरना आप दिशा रवि को जेल में बंद नहीं देखते और डिजिटल समाचार मीडिया के लिए इतने सख्त नए नियम न लागू किए जाते। अफसोस की बात यह है कि हम इन हालात से पहले भी गुजर चुके हैं। 1970 वाला ‘विदेशी हाथ’ 1980 के दशक में भी लौटा था। 1990 के दशक में तो हालात और भी बुरे हो गए थे। वहां से चलकर हम आज यहां पहुंचे हैं कि अमेरिका हमारा ‘स्वाभाविक रणनीतिक सहयोगी’ है।

यह सहयोग ‘क्वाड’ के रूप में विकसित हो रहा है। वादा किया जा रहा है कि हमारी अर्थव्यवस्था उम्मीद से पहले 5 ट्रिलियन डॉलर वाली बन जाएगी। हमारी महत्वाकांक्षा वैश्विक आर्थिक, रणनीतिक और नैतिक महाशक्ति, विश्वगुरु बनने की है, लेकिन हम इतने तुनकमिज़ाज बन जाते हैं कि जरा-सी असहमति या आलोचना के संकेत भी हमें बर्दाश्त नहीं होते। खुद को ही नीचा दिखाने की और क्या परिभाषा हो सकती है?

शेखर गुप्ता
(लेखक एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’ हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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