ईश्वर की रचना अद्भुत है। यहां जो कुछ होता है, उसके पीछे प्रकृति का एक नियम है। अब भले ही नग्नता को अश्लील माना जाए, परंतु आज तक कभी किसी ने गाय को नग्न नहीं कहा है। प्राणी के जन्म लेने की प्रक्रिया पवित्र मानी गई है। जब भी किसी प्राणी का जन्म होता है तो प्राणी को होने वाली प्रसव पीड़ा को ईश्वर की वेदना माना गया है।
‘अध्यात्म रामायण’ में एक प्रसंग है। अयोध्या के अंत:पुर का नाम था अशोक वाटिका और रावण ने लंका में सीता को जिस स्थान पर रखा था, उसका नाम भी अशोक वाटिका था। अयोध्या में एक सुबह देवर्षि नारद का आगमन हुआ। उस समय अशोक वाटिका में वृक्ष डोल रहे थे, कोयल कूक रही थी।
नारद को देखकर श्रीराम उठ खड़े हुए। प्रवेश द्वार पर पहुंचकर उनका स्वागत किया। फिर देवर्षि से कहा- हे नारद जी! आपका आगमन हमारे जैसे सांसारिक लोगों को माया से मुक्त करने का कारण बन रहा है। उधर नारद जी तो राम को विष्णु का अवतार मान रहे थे। राम के मानव स्वरूप में भी वे उन्हें विष्णु स्वरूप ही नजर आ रहे थे। तब नारद ने राम से कहा- हे! राम, जिसे आप माया कह रहे हैं, वह आपकी गृहिणी है (सा माया गृहिणी तव)। ऐसी माया को स्वामी आनंद ने सृजनकर्ता की न्याय व्यवस्था कहा है।
मानव प्रकृति की गोद में खेलने के लिए ही पैदा हुआ है। वह प्रकृति से जितना अधिक दूर होगा, उतना ही दु:खी और जितना करीब होगा, उतना ही सुखी होगा। गीता भी यही कहती है। प्रत्येक प्राणी अपनी प्रवृत्ति के अनुसार ही जीवन जीता है। दुर्योधन अपना दुर्योधनपन नहीं छोड़ सकता था तो उधर अर्जुन अपना अर्जुनत्व नहीं छोड़ सकता था।
‘प्रकृति यांति भूतानि’। पूरी महाभारत इन तीन शब्दों पर ही रची गई है। क्या आपने कभी किसी गिलहरी को गंभीर रूप में देखा है? क्या कभी किसी हिरण को आराम से चलते हुए देखा है? ये इनकी प्रवृत्ति नहीं है। कभी किसी गाय की आंख को देखोगे तो उसकी आंख में आपको करुणा दिखाई देगी। गांधीजी ने गाय को ‘करुणा की कविता’ कहा है। अपनी इसी करुणा के कारण गाय आज संपूर्ण मानवजाति की मां बनी हुई है।
प्रकृति का अनुपम उपहार जिसे हम जंगल कहते हैं, वास्तव में वह सद्भाव का महाकाव्य ही है। नदी नीचे की तरफ बहती है। उसके मार्ग में यदि पर्वत खड़ा हो जाए तो वह अपना मार्ग ही बदल देती है। इसीलिए काका साहब कालेलकर ने नदी को ‘लोकमाता’ कहा है। नदी पवित्र है, क्योंकि प्राणी मात्र की प्यास पवित्र है। जल पवित्र है, क्योंकि प्यास पवित्र है। प्रकृति में फैली इस पवित्रता को प्राप्त करना ही मनुष्य का धर्म है। धर्म को किसी भी इमारत में कैद नहीं किया जा सकता।
चार शब्दों पर टिका है हमारा संसार
पूरा संसार केवल चार शब्दों पर ही टिका हुआ है। पहले दो शब्द उसे मीरा बाई से मिले हैं – ‘मुखड़े की माया’ (मुखड़ा और माया, ये दो शब्द)। दूसरे दो शब्द हमें गुजराती साहित्यकार पन्नालाल पटेल से मिले हैं। वे शब्द हैं – ‘एकाकार प्राणी’। इसी नाम से गुजराती का उपन्यास है ‘मणेला जीव’। मेरा मानना है कि इन चार शब्दों को अगर दुनिया से निकाल दिया जाए तो शेष कुछ भी नहीं बचेगा।
गुणवंत शाह
(पदमश्री से सम्मानित वरिष्ठ लेखक और विचारक हैं ये उनके निजी विचार हैं)