वे दूसरे विश्वयुद्ध के दिन थे। सूरत शहर के तापी नदी के किनारे हमारी प्राथमिक शाला थी। हमारे शिक्षक हमें पहाड़ा याद करने को कहते और क्लॉस रूप से बाहर चले जाते जहां वे अपने साथी शिक्षकों से बात करते। उनकी कुछ बातें हमारे कानों पर पड़तीं। क्या लगता है, हिटलर अंग्रेजों से तालमेल बिठा पाएगा? चर्चिल परेशान करने वालों में से है। वह सरलता से हाथ नहीं आने वाला। गांधीजी की अहिंसा की परवाह न तो चर्चिल को है और न ही हिटलर को। वे नहीं मानते कि चरखा चलाने से स्वराज्य की प्राप्ति हो जाएगी। हां, सुभाष चंद्र बोस जापान के साथ मिलकर कुछ नया कर दें, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
हम छोटे थे, तब हमें पुलिस से बहुत डर लगता था। उन दिनों अशोक कुमार की फिल्म ‘किस्मत’ आई थी। उसमें कवि प्रदीप का गीत था – ‘आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है, दूर हटो, दूर हटो, दूर हटो, ये दुनियावालों, हिंदुस्तान हमारा है।’ मुझे आज तक यह समझ में नहीं आ रहा है कि 1943 में प्रदर्शित इस फिल्म का यह जोशीला गीत सेंसरशिप की कैंची से कैसे बच गया?
वह जमाना कैसा था? माता-पिता यह मानते थे कि फिल्में देखने से बच्चे बिगड़ जाते हैं। पांच आने का टिकट लेकर फिल्म देखने जाना शान हुआ करती थी। दस आने का टिकट लेकर जाना तो रईसी थी। यदि आपने एक टिकट पर एक रुपया खर्च किया है तो आप बॉक्स में बैठने के अधिकारी होते। कुछ समय बाद टीवी पर कवि प्रदीप के गीत को दिखाना शुरू किया गया। तब एक विचार आया। उस जमाने में बार-बार अखंड भारत का नक्शा सामने आया। बचपन में हम जब नक्शा बनाते, तो उसमें सिंघ, बलूचिस्तान और पूरा पंजाब समा जाता था। पूरा बंगाल, पूरा कश्मीर और पूरा बर्मा भी उसमें मिलता। बर्मा को ब्रह्मदेश भी कहा जाता, अब तो उसे ही म्यांमार कहते हैं।
पुरानी फिल्मों में फाइटिंग के जो सीन हुआ करते थे, वे आज की तरह नहीं थे। फिल्म में फाइटिंग के दृश्य केवल 5 मिनट तक ही होते। फिल्मों का नायक दूसरों की मदद करने वाला, बलिदान देने वाला होता तो लोगों को अच्छा लगता। उसका शरीर बलिष्ठ नहीं होता। सिक्स पेक वाला तो कतई नहीं होता। वह नायक होता, पहलवान नहीं। नायिका खूबसूरत दिखने के लिए मेकअप करती, पर अपने सुंदर शरीर को दिखाने के लिए अश्लीलता का सहारा नहीं लेती। नरगिस जैसी हीरोइन सुंदर होती, सुंदर होने के लिए उन्हें अधिक मेकअप की जरूरत भी नहीं होती। फिल्मी गीतों में काव्यतत्व का मनोहारी उपयोग होता। संगीत हृदय को छूने वाला होता। उसमें आर्केस्टा का शोरगुल नहीं होता। अशोक कुमार, राजकपूर और दिलीप कुमार पहलवान नहीं, बल्कि कलाकार थे। संजीव कुमार के पास शारीरिक ताकत नहीं थी, उसके पास कलाशक्ति थी। मसल पॉवर कहां था? उन दिनों जिस फिल्म में अशोक कुमार होते, उस फिल्म को देखने वाले टिकट लेने के लिए लम्बी कतार में लग जाते।
खैर, कुल मिलाकर कह सकते हैं कि वह जमाना मर्यादा का था। मर्यादा किसी मानव के स्वराज पर प्रहार नहीं करती। श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम थे। उन्होंने रावण का वध किया था। परंतु उससे पहले समाधान के लिए अंगद को रावण की राजसभा में भेजा था। मर्यादा के बिना समाज विवेकहीन, बुद्धिहीन ही होता है। राम के इस देश में आज हर पल मर्यादाएं टूट रही हैं। पूरा ब्रह्मांड मर्यादा पर ही टिका हुआ है। मर्यादा का सच्चा संबंध तो लौकिक लय के साथ है।
गुणवंत शाह
(पदमश्री से सम्मानित वरिष्ठ लेखक, साहित्यकार और विचारक हैं ये उनके निजी विचार हैं)