दक्षिण भारत के कई क्षत्रप भाजपा की बढ़ती ताकत से घबराए हुए हैं। हैदराबाद नगर निगम के चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन इस लिहाज से दक्षिण भारत की राजनीति में मील का पत्थर साबित हो सकता है। जिस तरह से नगर निगम के चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनने के बावजूद मेयर के चुनाव में अपना आदमी जिताने की रणनीति बनाने की बजाय तेलंगाना के मुख्यमंत्री भाग कर दिल्ली पहुंचे, उससे उनकी राजनीति समझ में आती है और दक्षिण के क्षत्रपों की मानसिकता का भी अंदाजा होता है। गौरतलब है कि हैदराबाद नगर निगम के चुनाव में के चंद्रशेखर राव की पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति सबसे बड़ी पार्टी बनी। लेकिन पिछली बार की 99 सीटों के मुकाबले उनकी पार्टी सिर्फ 55 सीट जीत पाई। पिछले चुनाव में महज चार सीट जीतने वाली भाजपा 48 सीटों पर जीती। अब वहां मेयर का चुनाव अटका है। राव को या तो असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एमआईएम का समर्थन लेना होगा या भाजपा का।
सो, मेयर का चुनाव कराने की बजाय उनका भाग कर दिल्ली आना और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से मिलना बहुत कुछ बयान कर रहा है। वे इस देश के इकलौते मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने प्रधानमंत्री से मुलाकात कर नए संसद भवन और सेंट्रल विस्टा के निर्माण के लिए उनको बधाई दी। इसके बाद वे अमित शाह से मिले। उनसे मुलाकात में भी राव ने सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट की तारीफ की और उनको भी बधाई दी। यह खबर तुरंत आ गई थी कि राव ने मोदी और शाह से मुलाकात में सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के लिए बधाई दी। इसके दो दिन बाद खबर जारी की गई कि उन्होंने तेलंगाना की कुछ परियोजनाओं के लिए फंड जारी करने की मांग की। जाहिर है दो दिन बाद जारी इस बयान का कोई मतलब नहीं है।
असली बात यहीं है कि उन्होंने मोदी और शाह से मुलाकात की और एक ऐसी परियोजना की तारीफ की, जिसके निर्माण पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगाई है, जिसका समूचा विपक्ष विरोध कर रहा है और देश भर के प्रबुद्ध नागरिक व सामाजिक कार्यकर्ता, जिस परियोजना के विरोध में हैं। कुछ दिन पहले ही हैदराबाद निगम के प्रचार में उनकी पार्टी और सरकार के खिलाफ भाजपा के नेताओं ने क्या कुछ नहीं कहा था। अमित शाह और जेपी नड्डा दोनों ने जम कर उनकी सरकार की आलोचना की थी। इसके बावजूद दिल्ली आकर सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट की तारीफ करना, उसके लिए बधाई देना अनायास नहीं है। उन्होंने अपनी राजनीति के तहत यह काम किया है। उनको पता है कि वे कुछ भी करें भाजपा अभी उनके प्रति सद्भाव नहीं दिखाने वाली है क्योंकि भाजपा को तेलंगाना के अगले चुनाव में इसी आधार पर लड़ना है कि चंद्रशेखर राव की पार्टी और ओवैसी की पार्टी में अंदरखाने तालमेल है और दोनों का विकल्प भाजपा है।
राव इस बात को समझ रहे हैं तभी उन्होंने वह राजनीति की है, जो पिछले एक साल से अरविंद केजरीवाल कर रहे हैं। भाजपा से लड़ते हुए उसकी नीतियों का समर्थन करना और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ऊपर हमला नहीं करना, इस राजनीति का कोर तत्व है। जिस तरह से केजरीवाल ने इस बात को समझ लिया कि अभी देश की राजनीति में वह समय नहीं आया है, जब नरेंद्र मोदी की खुली आलोचना वोट दिला देगी। उलटे उनके ऊपर ज्यादा हमला करने से नुकसान होगा। उससे न सिर्फ कट्टरपंथी हिंदू वोट नाराज होंगे, बल्कि नरम हिंदुत्व को मानने वाले लोग भी साथ छोड़ेंगे। इस हकीकत को राव भी पहले से समझ रहे हैं तभी उन्होंने अपने राज्य का चुनाव समय से पहले कराया। तेलंगाना में चुनाव 2019 के लोकसभा चुनाव के साथ होना था पर राव ने 2018 में ही अपनी सरकार भंग कर दी, जिसकी वजह से उसी साल के आखिर में उनके यहां चुनाव हो गया। वे नहीं चाहते थे कि राज्य का चुनाव लोकसभा के साथ जुड़े और नरेंद्र मोदी के नाम पर लड़ा जाए।
इसके उलट आंध्र प्रदेश में तब के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू लगातार नरेंद्र मोदी से लड़ते रहे। उनके खिलाफ विपक्ष का मोर्चा बनाने की कोशिश करते रहे। इसका उन्हें कोई फायदा नहीं हुआ। उलटे नुकसान हो गया। उनके राज्य में मुख्य विपक्षी वाईएसआर कांग्रेस चुनाव जीत गई। चुनाव जीतने के बाद से राज्य के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी वहीं राजनीति कर रहे हैं, जो दिल्ली में अरविंद केजरीवाल और तेलंगाना में चंद्रशेखर राव ने शुरू किया है। जगन मोहन हर मामले में केंद्र के साथ हैं। उन्होंने सार्वजनिक रूप से मोदी के पैर छुए और आशीर्वाद लिया। वे अक्सर दिल्ली में उनसे मिलते हैं, अंगवस्त्रम पहनाते हैं और तारीफ करते हैं। इसका मकसद ऐसे हिंदू वोट को अपने साथ जोड़े रखना है, जो भले भाजपा का समर्थक नहीं हो पर मोदी के प्रति या नरम हिंदुत्व के प्रति सद्भाव रखता हो। यानी तटस्थ हिंदू वोट को नाराज नहीं करने की रणनीति के तहत जगन मोहन काम कर रहे हैं। हैदराबाद में झटका लगते ही राव को यह बात समझ में आ गई है।
चद्रशेखर राव के साथ साथ यह बात पड़ोसी राज्य कर्नाटक में जेडीएस के नेता एचडी कुमारस्वामी को भी समझ में आई है। वैसे कांग्रेस और भाजपा के बीच उनका रवैया हमेशा ढुलमुल रहा है। लेकिन इस बार जिस तरह से राज्य की भाजपा सरकार के गोरक्षा बिल का उनकी पार्टी ने साथ दिया वह उनके राजनीतिक एजेंडा में आ रहे बदलाव का संकेत है। उन्होंने भी गोरक्षा बिल का समर्थन करके व्यापक हिंदू समाज को ही मैसेज दिया है। यह एक तरह से कांग्रेस से दूरी दिखाने की राजनीति भी है। उधर तमिलनाडु में अन्ना डीएमके पहले से भाजपा के साथ है। वह भाजपा के गठबंधन में शामिल है। इस तरह केरल और पुड्डुचेरी छोड़ कर बाकी दक्षिण भारत के चार राज्यों- आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक और तमिलनाडु के प्रादेशिक क्षत्रप भाजपा से पंगा नहीं करने या उसके प्रति सद्भाव दिखाने की राजनीति कर रहे हैं।
यह भारत की बदलती राजनीति की भी हकीकत बताने वाला घटनाक्रम है। दक्षिण भारत में, जहां कर्नाटक छोड़ कर बाकी राज्यों में भाजपा अपना वजूद तलाशने की राजनीति कर रही है वहां चार बड़ी प्रादेशिक क्षत्रपों का भाजपा के प्रति प्रेम और सद्भाव दिखाना इस बात का संकेत है कि देश की राजनीति की कुछ बुनियादी बातें स्थायी रूप से बदल गई हैं। इससे कई निष्कर्ष निकलते हैं। जैसे अब अनिवार्य रूप से हर पार्टी को बहुसंख्यक हिंदू वोट की राजनीति करनी होगी। जैसे हिंदू वोट की राजनीति की धुरी भाजपा के ईर्द-गिर्द घूम है और जिस तरह से कभी आजादी की लड़ाई लड़ने वाली पार्टी कांग्रेस थी वैसे ही हिंदू हित की बात करने वाली पार्टी भाजपा है। जैसे यह निष्कर्ष भी निकल रहा है कि अल्पसंख्यकों की राजनीति बदलेगी, उसकी राजनीति उसके नेता जैसे एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी, एआईयूडीएफ के बदरूद्दीन अजमल, इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के केएम मोहिउद्दीन करेंगे। यह राजनीति अंततः भारत के लिए बहुत बड़ा खतरा बन सकती है।
शशांक राय
(लेखक पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)