महंगाई सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती जा रही है। इसके कई कारण हो सकते हैं, जैसे पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ाया जाना। मालगाड़ी का किराया भी बढ़ा दिया गया है। चुनाव प्रचार के खर्चे और उन्हें नियोजित करने में लगी ऊर्जा, पवित्र स्थानों में चढ़ावा। तमाशा क्रिकेट में बिजली का खर्च। खेल मैदानों की हरियाली बनाए रखने में पानी का अपव्यय इत्यादि महामारी के चलते निरस्त किए जा सकते थे।
शस्त्र की खरीदी पर रोक लगाई जा सकती थी क्योंकि युद्ध बाजार में हो रहा है। सरकारी अनाज की दुकानों का सामान काला बाजार में बेचा जाता है। कतार में खड़े गरीबों को बताया जाता है कि सामान नहीं है। कहीं एक जगह से लीकेज हो तो रोका जा सकता है परंतु व्यवस्था छलनी की तरह हो चुकी है। हर दफ्तर में अधिकारियों की संख्या लिपिकों से अधिक है। हर रुपए का अधिकांश हिस्सा सेना और व्यवस्था को चलाने में खर्च हो रहा है।
पटकथा लिखने के बाद फिल्म बजट में लागत का 10% आरक्षित रखा जाता है ताकि किसी भी कारण शूटिंग कार्यक्रम में फेरबदल होता है या काला बाजार बीमार पड़ जाता है तो आरक्षित रकम से खर्च किया जा सके। यह सामान्य नियम भंग किया जा चुका है। सितारों का मेहनताना बजट का 30% और 70% फिल्म निर्माण पर खर्च किया जाएगा। वर्तमान में फिल्म निर्माण के लिए 30% रकम भी खर्च की जाती है। सितारे 70% ले लेते हैं।
गुजरे दौर में बच्चे अपने जेब खर्च से बचे सिक्के गुल्लक में डालते थे। आवश्यकता पड़ने पर गुल्लक तोड़ कर रकम निकाली जाती है। मनोज कुमार की फिल्म ‘रोटी कपड़ा और मकान’ में एक गीत है- ‘एक तो हमें आंख की लड़ाई मार गई…दूसरी तो यार की जुदाई मार गई… तीसरी हमेशा की तरह ही तन्हाई मार गई… चौथी खुदा से खुदाई मार गई… बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गई।’ यह वर्मा मलिक द्वारा लिखा गया गीत है।
सन् 1929 में जर्मनी में महंगाई का बढ़ना प्रारंभ हुआ। रेस्त्रां के बाहर कॉफी के नाम लिखे होते थे और यह भी सूचित किया जाता था कि कॉफी पीते समय दाम बढ़ सकते हैं। महंगाई की कोख से तानाशाह हिटलर का उदय हुआ। उसने बंदूक और बारूद के अनेक कारखाने बनाए। बेरोजगारी हटते ही महंगाई पर लगाम लगा दी। प्रथम विश्व युद्ध के बाद मित्र देशों ने जर्मनी में बना माल नहीं खरीदा। हिटलर युद्ध प्रारंभ करने का अवसर खोज रहा था।
जर्मनी को सर्वोत्तम देश मानकर छद्म राष्ट्रवाद का उन्माद जगाया गया। यहूदियों को मारा जाने लगा। पांच वर्ष तक चले विश्व युद्ध में अनगिनत लोग मारे गए। हिटलर ने आत्महत्या कर ली। महंगाई का अंधड़ युद्ध के लिए जमीन बना देता है। दरअसल सारे युद्ध अकारण होते हैं। महंगाई का एक कारण यह भी है कि उत्पादक अपने प्रोडक्ट के विज्ञापन पर बहुत अधिक खर्च कर देता है। इसको वह लागत में जोड़ देता है।
पहले मुट्ठी भर धन से थैला भर समान आ जाता था। अब थैला भर धन से मुट्ठी भर सामान खरीदा जा सकता है। अपराध भी महंगाई के कारण बढ़ जाते हैं। जेब कतरने वालों को बटुए में कम पैसे मिलते हैं। कबाड़ी की दुकान पर चमड़े का बना हुआ पर्स अच्छे दाम में बिक जाता है। कुछ लोग अपना ही पर्स कबाड़ी से कई बार खरीदते हैं। चोर बाजार में रौनक आ जाती है।
अनाज ढोने के लिए बोरों का इस्तेमाल होता है। खाली बोरे भी बेचे जाते हैं। बोरे बदलते हैं पर उन्हें ढोने वालों की पीठ वही रहती है। कमरतोड़ महंगाई से त्रस्त आदमी झुककर चलने का आदी हो जाता है। निजाम को झुके हुए लोग बहुत पसंद हैं। रीढ़हीन समाज की संरचना जारी है।
शादी-ब्याह की लगन अब 71 दिन तक चलेगी। शादी में फिजूलखर्ची से महंगाई बढ़ेगी। ‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना, मुश्किल है इस मनमौजी को समझाना’ दुल्हन का कोरोना परीक्षण जरूरी है। क्या मधु रात्रि क्वारंटाइन में मनाई जाएगी।
पुलिसकर्मियों का वेतन बेहद कम: ताजा खबर है कि कोरोना की दवा की तस्करी करने वाले रंगे हाथों पकड़े गए। इस कठिन दौर में पुलिस सतर्कता से काम कर रही है। भारत में पुलिस वालों के वेतन दुनिया के सभी देशों की तुलना में अत्यंत कम हैं। जाने कैसे दवा बनाने का लाइसेंस मिल जाता है? वैसीन के नाम पर डिस्टिल वाटर का इंजेशन देते हुए कंपाउंडर पकड़ा गया। राज कपूर की ‘श्री 420’ में एक व्यापारी कहता है कि उसे आठ सौ मन चावल मिल गए हैं, परंतु ऑर्डर हजार मन का मिला है। साथ ही भागीदार कहता है कि या उसे दौ सौ मन कंकर पत्थर नहीं मिलते?
बोनी कपूर की फिल्म ‘मिस्टर इंडिया’ में भी अनाज में मिलावट का सीन था। दिलीप कुमार अभिनीत फिल्म ‘फुटपाथ’ में नायक दवा बनाने वाली कंपनी में नौकरी करता है। नकली दवा निर्माता कंपनी पर पुलिस दबिश डालती है। कंपनी के मालिक भाग जाते हैं। कर्मचारी नायक पकड़ा जाता है। अदालत में दिलीप अभिनीत पात्र कहता है कि वह कंपनी के घिनौने इरादे जान गया था परंतु चुप रहा क्योंकि वह परिवार का एकमात्र कमाने वाला था। ‘आज उसे अपनी सांस में सैकड़ों मुर्दों की गंध आ रही है।’ दिलीप ने अपना संवाद इतने प्रभावी ढंग से अदा किया कि सिनेमा हॉल में बैठे दर्शक घबराकर खुली हवा में सांस लेने भाग गए।
‘फुटपाथ’ के प्रदर्शन के मात्र 7 बरस बाद ऋषिकेश मुखर्जी की मोतीलाल, राज कपूर, नूतन अभिनीत फिल्म ‘अनाड़ी’ आई। एक महामारी के समय मोतीलाल और भागीदार दवा बनाने की कंपनी के संचालक रहे। उनकी कंपनी की बनाई दवा की एक खेप में तकनीकी त्रुटि रह जाने से दवा लेने वाले की सांस उखड़ जाती और वह मर जाता है। मोतीलाल उस त्रुटि वाली खेप को बाजार से उठवा लेना चाहता है। इसमें असली-नकली दोनों ही दवाएं बाजार से उठाना पड़ सकती हैं। मोतीलाल के भागीदार यह नहीं करना चाहते हैं। वे कहते हैं कि बड़े सौभाग्य से महामारी आती है और दवा निर्माण के कारोबार में धन बरसता है। फिल्म में एक उम्रदराज महिला अपने घर का एक भाग बेरोजगार युवा को किराए पर देती है। वह पेंटिंग भी करता है। उसकी कड़की के दौर में मकान मालकिन उसकी पेंटिंग बेच कर उसे पैसे देती है। दरअसल वह पेंटिंग बिकी ही नहीं। उस दयालु स्त्री की मृत्यु, नकली दवा लेने के कारण होती है। मृत्यु के बाद नायक को अपनी बिकी हुई पेंटिंग एक कमरे में रखी मिलती है।
मोतीलाल को ज्ञात होता है कि उसकी भतीजी, जिसे उसने पाला है वह नायक राज कपूर से प्रेम करती है। वह युवा नायक को मकान मालकिन की हत्या के झूठे आरोप में पकड़वा देता है। इत्तेफाक से मकान मालकिन ने कुछ दिन पहले ही अपनी वसीयत में मकान अपने किराएदार के नाम कर दिया था। अदालत में मुकदमा चलता है। मोतीलाल की गवाही पर फैसला निर्भर करता है। नूतन मोतीलाल के सामने उसकी बनी कंपनी की दवा लेने जा रही है और मोतीलाल दवा छीन लेता है। अब उसे पश्चाताप है कि अपने भागीदार के दबाव में उसने दवा के नाम पर जहर बिकने दिया। अगले दिन अदालत में वह गुनाह स्वीकार करता है। वह अपने भागीदारों सहित गिरफ्तार होता है। नायक बाइज्जत बरी होता है।
नकली दवा के विषय पर बनी ‘फुटपाथ’ असफल रही और ‘अनाड़ी’ सफल रही। फिल्म बनाने का यह अंदाज- ए-बयां चार्ली चैपलिन का आविष्कार था। भारत में राज कपूर, ऋषिकेश मुखर्जी से होते हुए यह परंपरा राजकुमार हिरानी तक आई है। वर्तमान में ‘बाहुबली’ ने इसका रास्ता रोका हुआ है। आज सतह के नीचे गई यह धारा भविष्य में सतह के ऊपर आकर बहेगी। शंकरजयकिशन ने ‘अनाड़ी’ में माधुर्य रचा। शैलेंद्र ने लिखा, ‘किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार, किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार, किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार,जीना इसी का नाम है।’
जयप्रकाश चौकसे
(लेखक फिल्म समीक्षक हैं ये उनके निजी विचार हैं)