मुगलों को निमंत्रण की जरुरत नहीं थी

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हम सभी ने इतिहास पढ़ा है कि मुगल सल्तनत की स्थापना 1526 में ज़हीर-उद-दीन मुहम्मद बाबर ने की थी। अगले दो शताब्दियों तक भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश हिस्सों पर मुगलों का शासन रहा। आम धारणा यह है कि बाबर को भारत आने का निमंत्रण भेजा गया था और यह कार्य मेवाड़ के राणा संग्राम सिंह (राणा सांगा) ने किया था। लेकिन यह केवल एक धारणा है और इसको किसी दावे से ज़्यादा नहीं आंका जा सकता। इसके पांच कारण नीचे पढ़ें।

पहला महत्वपूर्ण कारण है कि अगर हम बाबरनामा (बाबर के संस्मरण) के एकाकी संदर्भ को अलग कर दें, तो कई इतिहासकार लिखते हैं कि निमंत्रण भेजने वाला व्यक्ति दौलत खां लोधी था। दौलत खां उस वक्त लोधी साम्राज्य में पंजाब के राज्यपाल के पद पर था। वह लोदी वंश में कमजोर नेतृत्व का फायदा उठाना चाहता था और बाबर की सेना की मदद से सत्ता हासिल करना चाहता था। बाद में, बढ़ती महत्वाकांक्षा के परिणामस्वरूप बाबर और दौलत खान की दोस्ती के बीच दरार पड़ गई थीं। इस बारे में भी इतिहासकारों ने अच्छे तरीके से उल्लेख किया है। यह ध्यान रखना दिलचस्प है कि बाबरनामा में इस न्यौते का अकेला उल्लेख पानीपत की लड़ाई (1526) के बाद होता है। वह भी ऐसे समय में जब राणा सांगा के खिलाफ बाबर युद्ध की योजना बना रहा था, न कि उस समय जब वह भारत की ओर कूच करने वाला था।

दूसरा कारण है कि जीएन शर्मा और गौरीशंकर हीराचंद ओझा जैसे कई प्रख्यात इतिहासकारों का दावा है कि निमंत्रण किसी और ने नहीं बल्कि स्वयं बाबर ने भेजा था और वह भी राणा सांगा को। बाबर ने पहले ही भारत पर हमला करने का मन बना लिया था और उसने राजपूत सरदारों से इब्राहिम लोधी को हराने में मदद मांगी। यह ज़रूर संभव है कि राणा स्वंय बाबर की मदद करने के लिए तैयार थे, लेकिन मेवाड़ की सेनापति और मंत्रियों के मना करने के बाद उन्होने अपना निर्णय बदल लिया हो।

तीसरा कारण है कि राणा साँगा ने अधिकांश लड़ाईयों में सफलता पायी उस उस समय मेवाड़ का स्वाद चखा था और मेवाड़ राजपूताना संघ की शक्ति अपने चरम पर थी। यह शायद इतिहास में आखिरी बार था जब उस भू-भाग के सारे राजपूत एक ध्वज के नीचे एकत्रित हुए थे। राजपूतों ने गुजरात के सुल्तान को हराने के साथ-साथ लोधी की सेनाओं को खतौली (1517) और धौलपुर (1518) में धूल चटाई थी। उस वक्त राणा सांगा के लिये ऐसा कोई कारण नहीं था कि वह लोधी से टक्कर लेने के लिये किसी बाहरी ताकत की मदद लें। लेकिन इस बात से इंकार भी नहीं जा सकता कि राणा सांगा उस समय इब्राहिम लोधी और बाबर को आपस मे लड़ने से रोकने वाले भी नहीं थे. वह भारत में हिन्दू साम्राज्य स्थापित करने के लिए अग्रसर थे और लोधी-मुगल युद्ध से होने वाले फायदे का लाभ उठाना चाहते रहे होंगे।

चौथा कारण यह है कि अगर राणा सांगा ने इब्राहिम लोधी को हराने के लिए बाबर को निमंत्रण भेजा था तो वह पानीपत की पहली लड़ाई (1526) में शामिल क्यों नहीं हुए?पानीपत के बाद राणा साँगा ने उसी साल बाबर के खिलाफ बयाना में भीषण युद्ध क्यों लड़ा? हालाँकि बाबर को पानीपत में लोधी के खिलाफ सफलता मिली थी, लेकिन कुछ महीनों बाद उसकी सेना को बयाना में राजपूतों ने बहुत बुरी तरह रौंद दिया था। उस हार का ऐसा असर हुआ कि बाबर मे शराब छोड़ दी और अपनी सेना का मनोबल बढ़ाने के लिए ‘जिहाद’ का हवाला देना पड़ा। बाबर यह भी जानता था कि उसके पास सैन्य अभियानों के लिए बंदूक और गोला-बारूद जैसे ताकतवर हथियार मौजूद थे। यह भी एक बहुत बड़ा कारण था कि बाबर अपनी छोटी लेकिन प्रशिक्षित सेना के बावजूद उसे कई महत्वपूर्ण लड़ाइयों में सफलता मिली।

पांचवां और सबसे महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि बाबर को किसी आमंत्रण की आवश्यकता नहीं थी। उसने भारत पर आक्रमण करने का निर्णय पहले ही कर लिया था। वास्तव में, बाबर का पहला प्रयास सन् 1519 में पंजाब पर हमले के साथ शुरू हुआ था। सन् 1526 में पानीपत के पहले बाबर चार बार प्रयास कर चुका था लेकिन उसे जीत केवल पांचवी बार मे ही मिली। अपने जीवन के शुरुआती दौर में बाबर ने समरकंद पर कब्जा करने की कई कोशिश की लेकिन वह नाकाम रहा।

आखिर सन् 1511-12 मे उज़्बेकियों ने बाबर को समरकंद छोड़ने पर मजबूर कर दिया और वह फरगाना घाटी (उज़्बेकिस्तान, किर्गिस्तान और ताजिकिस्तान के कुछ हिस्से) से जान बचा कर भाग निकला था। बाबर को पता था कि उसके पास भारत की ओर कूच करना एकमात्र विकल्प था। समय भी ऐसा था जब लोधी साम्राज्य कमजोर हो चुका था और बाबर के लिये वापस अपने घर जाना असंभव था। यह तो केवल बाद में जब राणा सांगा ने महसूस किया कि बाबर अपने पूर्वजों (तैमूर लंग) की तरह भारत छोड़ कर वापस नहीं जाने वाला है, कि मेवाड़ राजपूताना संघ को बाबर के खिलाफ खानवा (1527) में करो या मरो वाली लड़ाई लड़नी पड़ी थी।

हमारे इतिहास की किताबों ने पानीपत की लड़ाई (1526) को बहुत महत्व दिया जाता है। वह भी तब जब सबको पता है कि उस समय लोधी साम्राज्य अपने अंत की ओर था और उनकी शक्ति क्षीण हो चुकी थी। तब की मजबूत सैन्य शक्तियां – राजपूत और मुगल – दोनों भारत पर अपना राज्य स्थापित करना चाहती थीं। पानीपत के युद्ध से हमारे देश के भविष्य पर उतना असर नहीं पड़ा जितना कि खानवा के युद्ध से। अगर राणा सांगा खानवा मे विजयी होते तो भारत पर मुगलों के बजाय एक नये हिंदू राष्ट्र की नींव रखी जाती।खानवा की हार से भारत की भू-राजनीति पर दोहरा दुष्प्रभाव पड़ा – मेवाड़ राजपूताना संघ की एकता के विखंडन के साथ-साथ मुग़लों ने धर्म और कूटनीतिक गठबंधनों के ज़रिये अपने साम्राज्य को और मज़बूत कर दिया।

संजीव सिंह
(लेखक पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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