टूटती उम्मीदों की व्यथा

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भारत में कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने डगमग अर्थव्यवस्था को एक तरह से अंधकार में धकेल दिया है। बैंको से निजी कर्ज लेने वालों, क्रेडिट कार्ड से कर्ज लेने वालों और प्राइवेट कंपनियों से गोल्ड लोन लेने वालों के डिफॉल्ट में पिछले महीने हुई बढ़ोतरी बढ़ती जा रही तबाही का संकेत देती है। रोजमर्रा के उपयोग की चीजें का बाजार जिस तरह अप्रैल और मई में ढहा है, उसका भी यही संकेत है कि भारत दुर्दशा अकथनीय रूप लेती जा रही है। दरअसल, ऐसी कहानी दुनिया भर में देखने को मिल रही है। इसलिए फिलहाल ऐसी भी कोई उम्मीद नहीं है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की मजबूती भारत को संभाल लेगी। मसलन, अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) की ताजा रिपोर्ट गौरतलब है। उसमे बताया गया है कि वैश्विक संकट के कारण 2022 तक बेरोजगारों की संख्या बढ़कर 20 करोड़ 50 लाख हो जाएगी। गरीबों की संख्या में बढ़ोतरी होने के साथ-साथ विषमता भी बढ़ेगी। आईएलओ का कहना है कि रोजगार के अवसरों में होने वाली बढ़ोतरी साल 2023 तक इस नुकसान की भरपाई नहीं कर पाएगी। ये सूरत तब की है, जब अभी पता नहीं है कि कोरोना महामारी के अभी आगे और कितने दौर आएंगे। हर दौर नई समस्याएं पैदा करेगी, यह साफ है। फिलहाल, सूरत यह है कि दुनिया में कोरोना महामारी का अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रहे दो अरब श्रमिकों पर विनाशकारी असर हुआ है।

2019 के मुकाबले अतिरिक्त 10 करोड़ 80 लाख श्रमिक अब ‘गरीब’ या ‘बेहद गरीब’ की श्रेणी में पहुंच चुके हैं। आईएलओ का अनुमान है कि अगले साल तक वैश्विक बेरोजगारी बढ़कर 20 करोड़ 50 लाख हो जाएगी। 2019 में यह संख्या 18 करोड़ 70 लाख थी। साफ है कि कोविड-19 महामारी से श्रम बाजार में पैदा संकट खत्म नहीं हुआ है। नौकरियों के अवसर में बड़े पैमाने पर ह्रास का महिलाओं, युवाओं और अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वालों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा है। महिलाओं के लिए 2020 में रोजगार के अवसरों में पांच फीसदी की गिरावट आई, जबकि पुरुषों के लिए यह आंकड़ा करीब चार फीसदी रहा। आईएलओ ने कहा है कि गरीबी उन्मूलन की दिशा में पांच साल की प्रगति बेकार चली गई है। उसने अनुमान लगाया है कि अगर दुनिया में महामारी नहीं आती, तो करीब तीन करोड़ नई नौकरी पैदा हो सकती थी। लेकिन महामारी के कारण कई छोटे व्यवसाय दिवालिया हो गए हैं या गंभीर कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं। बिजली भी हुई मुहाल: कोरोना महामारी की मार दुनिया में जिंदगी के किन-किन पहलुओं पर पड़ी है, अभी इसका अंदाजा सबको नहीं है। हर गुजरते दिन के साथ कोई नया पहलू उभर कर सामने आता है।

मसलन, अब ये खबर आई है कि कोविड-19 महामारी के कारण हुए आर्थिक नुकसान ने एशिया और अफ्रीका में ढाई करोड़ लोगों को बिजली खरीदने में असमर्थ बना दिया है। इससे 2030 तक सभी को बिजली देने का वैश्विक लक्ष्य खतरे में पड़ता दिख रहा है। अक्षय ऊर्जा स्रोतों का अध्ययन करने वाली एक वैश्विक संस्था ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि प्रभावित लोगों में से दो-तिहाई सबसहारा अफ्रीका में हैं। 2020 में कोविड19 संकट ने नौकरियों और आय को प्रभावित किया है, जिससे पंखे चलाने, बाी जलाने, टीवी और मोबाइल फोन को चार्ज करने के लिए आवश्यक बिजली सेवाओं का भुगतान करने में लाखों लोगों ने दिक्कतों का सामना किया है। इससे पिछले दशक में हुई प्रगति खतरे में पड़ गई है। गौरतलब है कि 2010 से करीब एक अरब लोगों तक बिजली पहुंचाया गया था। 2019 में दुनिया की 90 फीसदी आबादी तक बिजली पहुंची। रिपोर्ट के मुताबिक बिजली उपलधता के मामले में संयुक्त राष्ट्र के तय लक्ष्य को महामारी ने प्रभावित किया है। लक्ष्य सभी के पास 2030 तक बिजली पहुंचने का है। दुनिया के तमाम विशेषज्ञ मानते हैं कि बिजली की उपलधता विकास के लिए महत्वपूर्ण है। ये दुखद है कि दुनिया में अभी भी करीब 75.9 करोड़ लोग बिना बिजली के रहते हैं। उनमें से आधे गरीब देशों में हैं।

अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी, अंतरराष्ट्रीय अक्षय ऊर्जा एजेंसी, संयुक्त राष्ट्र संघ आर्थिक और सामाजिक विभाग, विश्व बैंक और विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक वर्तमान और नियोजित नीतियों के तहत अनुमानित 66 करोड़ लोगों को 2030 तक अब बिजली उपलध नहीं हो सकेगी। दुनिया की आबादी का लगभग एक तिहाई यानी 2.6 अरब लोगों को 2019 में खाना पकाने के लिए स्वच्छ ऊर्जा उपलध नहीं थी। एशिया के बड़े हिस्से में प्रगति के बावजूद ये सूरत बनी हुई है। सब-सहारा अफ्रीका में समस्या सबसे गंभीर है, जहां अब भी लोग खाना पकाने के लिए मिट्टी का तेल, कोयला और लकड़ी जैसी चीजों का इस्तेमाल करते हैं, जो प्रदूषण फैलाने के साथसाथ सेहत के लिए भी खतरनाक हैं। ऐसी रिपोर्टें समस्याएं बताती हैं। समाधान क्या है, ये ढूंढना सरकारों का काम है। सरकार की कथा निराली: वैसे भारत सरकार को इस बात का श्रेय देना होगा कि वह घोर अंधकार में भी सकारात्मक पहलू ढूंढ लेती है। मसलन, अगर देश में कोरना टीकाकरण में प्रगति की बात की जाए, तो सरकारी पक्ष बताएगा कि 20 करोड़ लोगों का टीकाकरण हो चुका है। इतनी बड़ी संख्या में दुनिया के कुछ ही देशों में टीकाकरण हुआ है। यानी वह इस बात को छिपा लेगी कि भारत में दोनों टीके सवा तीन प्रतिशत लोगों को ही लगे हैं या एक टीका भी अभी कुल आबादी के पांचवें हिस्से तक को नहीं लग पाया है।

पॉजिटिव ढूंढने की भारत सरकार की ये क्षमता पूरे कोरोना काल में दिखती रही है। वैसे ये कहानी उससे भी पुरानी है। सबसे पहले तो डेटा मैनेजमेंट के जरिए सुर्खियां और उनके जरिए जनमत संभालने की क्षमता उसने अर्थव्यवस्था में दिखाई। बहराहल, भारत सरकार की ये कुशलता भारत के लोगों को बहुत महंगी पड़ी है। वैश्विक मीडिया पर खुल कर ये बात कह रहा है। कोरोना महामारी की दूसरी लहर के दौरान प्रिंट मीडिया के एक हिस्से को भी यह समझ में आया कि सरकार की झूठी कहानियां फैलाने से सच नहीं बदल जाता। बल्कि इसमें सहभागी बन कर मीडिया भी भारत की मुसीबत बढ़ाने में सहभागी बन जाता है। तो कुछ अखबारों ने मृतकों की सही संख्या ढूंढने के लिए प्रशंसनीय प्रयास किए। उसका असर भी हुआ। बहरहाल, अब असल सवाल यह है कि अगर टीकाकरण रफ्तार से नहीं हुआ, तो आगे अभी देश को महामारी की कई लहरों का सामना करना पड़ सकता है।

सरकार के वैक्सीन नीति बदलने के बावजूद ये सूरत तुरंत बदलेगी, इसकी कोई आशा नहीं है। सच यही है कि अब भी देश में कोरोना वैक्सीन की जबरदस्त कमी बनी हुई है। यह बात वैक्सीन के लिए स्लॉट न मिलने, दूसरी डोज की समयसीमा बढ़ाए जाने, और टीकाकरण में आई कमी से उजागर होती है। भारत कहने को दुनिया का सबसे बड़ा वैक्सीन उत्पादक देश है। लेकिन हकीकत यह है कि वह अपनी जनसंख्या का टीकाकरण करने में ब्राजील और मैक्सिको जैसे देशों से भी पीछे है। अमेरिका या चीन या ब्रिटेन जैसे देशों से तो इस मामले में भारत की कहीं कोई तुलना ही नहीं है। गौरतलब है कि वैज्ञानिकों के मुताबिक देश को हर्ड इम्युनिटी के करीब पहुंचने के लिए कम से कम अपनी 64 फीसदी जनसंख्या को वैक्सीन की दोनों डोज देना जरूरी है। अब ये कब होगा, अंदाजा लगाया जा सकता है।

अजीत दि्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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