भारत में कोरोना का प्रकोप एक तरफ नई ऊंचाइयों को छू रहा है और दूसरी तरफ हमारे अस्पताल लापरवाही और लूटमार में सारी दुनिया को मात कर रहे हैं। दिल्ली और मुंबई से कई ऐसी लोमहर्षक खबरें आ रही हैं कि उन पर विश्वास ही नहीं होता। कोरोना के मरीजों को और उनके रिश्तेदारों को यह कहकर टरका दिया जाता है कि अस्पताल में कोई बिस्तर खाली नहीं है। दिल्ली के एक मरीज़ को जो खुद डॉक्टर थे, पांच सरकारी और गैर-सरकारी अस्पतालों ने टरकाया और उन्हें रास्ते में ही दम तोड़ना पड़ा। मुंबई के नामी-गिरामी अस्पताल के सघन चिकित्सा ईकाई (आइसीयू) से एक बुजुर्ग मित्र कल रात से मुझे कई बार फोन कर चुके हैं। वे कह रहे हैं कि वे ठीक-ठाक हैं लेकिन उस अस्पताल ने उन्हें कोरोना-मरीज कहकर जबर्दस्ती भर्ती कर लिया है।
वे नमाज़ पढ़ने गए थे और रोजे उनके गले पड़ गए। वे हल्के बुखार को दिखाने गए थे लेकिन उन्हें अस्पताल में इसलिए फंसा लिया गया है कि अब उनसे लाखों रुपए वसूले जाएंगे। दिल्ली में भी यही हाल है। एक-दो मित्रों ने बताया कि फलां गैर-सरकारी अस्पताल उनसे 5 से 10 लाख रु. अगाऊ रखा ले रहा है जबकि सरकारी अस्पतालों में वही इलाज और कमरा सिर्फ कुछ हजार रु. रोज़ में मिल जाता है। इसी मुद्दे पर आजकल सर्वोच्च न्यायालय में भी बहस चल रही है। याचिकाकर्त्ता मांग कर रहे हैं कि इन निजी अस्पतालों को सरकार ने जमीनें मुफ्त दी थीं तो ये नियम के मुताबिक 25 प्रतिशत मरीजों का इलाज मुफ्त क्यों नहीं करते। यह ठीक है कि यह संकट का समय है, अस्पतालों का खर्च ज्यों का त्यों है और उनकी आमदनी काफी घट गई है, इसलिए वे कैसे भी अपना घाटा पूरा करना चाहते हैं।
लेकिन मेरा निवेदन यह है कि इस संकट के समय को वे लूट-पाट का समय न बनाएं। यों भी भारत के निजी अस्पताल और निजी शिक्षा-संस्थान, कुछ सम्मानीय अपवादों को छोड़कर, शुद्ध लूट-पाट के अड्डे बन चुके हैं। इसीलिए चार-पांच साल पहले मैंने लिखा था कि समस्त सांसदों, विधायकों, पार्षदों और सरकारी कर्मचारियों और उनके परिजनों का इलाज भी सरकारी अस्पतालों में और बच्चों की शिक्षा सरकारी स्कूल व कालेजों में ही होना चाहिए। तभी इनका स्तर सुधरेगा। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इन्हीं शब्दों का आदेश भी जारी किया था। कोरोना की बीमारी ने इस मुद्दे पर दुबारा मोहर लगा दी है। यदि निजी अस्पताल अपना रवैया नहीं बदलते तो वे निश्चय ही अपने राष्ट्रीयकरण को दावत दे देंगे।
डा.वेद प्रकाश वैदिक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)