हर मदद से दूर छोटे व्यापारी

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अचानक लगे लॉकडाउन में श्रमिकों के ऊपर ही नहीं, देश के कोने-कोने में फैले दो करोड़ छोटे और मंझोले दुकानदारों पर भी पहाड़ टूटा है। इनकी दुकानों से करीब दस करोड़ लोगों के परिवार भी चलते हैं। लॉकडाउन के चलते इनके फाके करने की नौबत आ चुकी है। व्यापारियों के इस वर्ग में नुक्कड़ पर चलने वाली दुकानों से लेकर सालाना पांच करोड़ के टर्नओवर वाले व्यापारी हैं। इनके व्यापार का आधार रोजाना बिक्री के बदले चेक या कैश में मिले धन का सर्कुलेशन है, जिससे पुराना उधार चुकता होता है और नया माल आता है। आम तौर पर इनकी 20 से 40 फीसद पूंजी पर्सनल या बैंकों के लोन की होती है, जिस पर इन्हें 12 से 20 प्रतिशत तक का ब्याज देना होता है। लॉकडाउन की घोषणा के बाद इन्हें अगर हफ्ते भर का भी वक्त मिल जाता तो जल्दी खराब होने वाली चीजों को या तो हटा लिया जाता या सस्ते में बेच दिया जाता। मगर ऐसा नहीं हुआ जिसके चलते पान-तंबाकू, बेकरी के सामान, ढाबे, मिठाइयां व नमकीन आदि की दुकानों का कच्चा-पक्का सब माल नष्ट हो गया।

राष्ट्रीय स्तर पर कई हजार करोड़ की स्टॉक की बर्बादी हुई जो पूंजी की सीधी क्षति है। बंद पड़ी दुकानों में दीमक और फंगस से भी खूब स्टॉक बर्बाद हुआ। चूहों ने कपड़ों, किताबों व प्लास्टिक आदि के सामान को कुतर कर बेकार किया तो सूखे मेवे की दुकानों का तो सत्यानाश कर दिया। काजू को छोड़ बाकी सभी मेवे आजकल सिंथेटिक बैग में ही आते हैं। इसी तरह ऐसे खाद्य पदार्थ, जिनका भंडारण कम तापमान पर किया जाता है, वे तो पूरी तरह से नष्ट हो चुके हैं। लॉकडाउन में सरकार ने व्यापारियों की इस मांग को भी अनसुना कर दिया कि उन्हें हफ्ते में एक दिन दस मिनट के लिए दुकान खोल कर सफाई कर लेने दी जाए। स्टॉक के सत्यानाश के बाद अगर प्रत्यक्ष लॉस को देखें तो दुकान के तमाम खर्चों में बिजली, दुकान-गोदाम किराया, कर्मचारी का वेतन, टेलिफोन व इंटरनेट आदि के मासिक भुगतान ऐसे खर्चे हैं, जो बिक्री हो या ना हो, व्यापारी को देने ही हैं। व्यापारियों को आशा थी कि सरकार बंदी अवधि का बिजली बिल माफ करेगी, लेकिन ऐसा भी नहीं हुआ।

व्यापारी सबसे अधिक निराश तो 20 लाख करोड़ के पैकेज से हुए, जिसमें वे कहीं भी नहीं हैं। व्यापारियों को आशा थी कि सहायता न सही, सरकार लॉकडाउन के वक्फे का ब्याज ही माफ करेगी, लेकिन सरकार ने ऐसी किसी घोषणा से उन्हें कोसों दूर रखा है। उधर एमएसएमई में सरकार ने हालांकि आशा के अनुकूल मदद नहीं की, फिर भी उनके उद्योगों में उनके बैंक लोनों की मर्यादित सीमा में 20 फीसद का इजाफा करने का बैंकों को निर्देश दिया है। व्यापारी-दुकानदार वर्ग तो इससे भी वंचित रह गया। पिछले दस सालों में देखें तो हर राजनीतिक पार्टी ने अपने ध्रुवीकरण के लिए इन व्यापारियों का जमकर इस्तेमाल किया है, इसलिए व्यापारियों का बहुसंख्यक वर्ग यह मानकर चल रहा था कि उनको केंद्र सरकार उपेक्षित नहीं रखेगी। दुकानें खुलने से पहले ही व्यापारी वर्ग नकदी के संकट से जूझ रहा है।

व्यापारियों की यह मांग उचित है कि सरकार बिक्री के अनुपात में 20 प्रतिशत की तरल नगदी दो वर्ष के लिए ब्याज मुक्त कर्ज के रूप में दे। क्योंकि लॉकडाउन से पहले खरीदे गए माल के भुगतान के वादे बिक्री न होने के कारण पूरे नहीं हो पा रहे हैं, जिसके चलते बैंकों में चेक बाउंस हो रहे हैं। इसकी वजह से संभावना है कि बाजार खुलने पर उधार मिलना बंद हो सकता है क्योंकि चेक बाउंस होने पर अधिकांश कंपनियां उधार देना बंद कर देती हैं। नुकसान का आकलन तो लॉकडाउन खोलने के बाद एक-दो माह तक आएगा, लेकिन यह निश्चित है कि दुकानों के दो माह से कोरे पड़े बही-खातों को अपनी गति पकड़ने में एक वर्ष लग जाएगा। दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं कि जीडीपी में 10 प्रतिशत का सहयोग करने वाला व्यापारी वर्ग इस बार यह मदद नहीं कर पाएगा क्योंकि वह खुद हेल्पलेस है।

गोपाल अग्रवाल
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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