लोकतंत्र के सवाल पर चुप्पी

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बात थोड़ा लीक से हटकर। कारण गंभीर है लेकिन चौतरफा चुप्पी। भारत लोकतंत्र का चेहरा हुआ करता था। आज भारत की संस्थाएं चरमराती नजर आ रही हैं। भारत में और न ही भारत के बाहर लोकतंत्र के सवालों को लेकर भारत के नेता बोलते नजऱ आ रहे हैं। रामधारी सिंह दिनकर की एक किताब है लोकदेव नेहरू। लोकभारती प्रकाशन से छपी है। इसमें एक चैप्टर है-क्या नेहरू तानाशाह थे? दिनकर नेहरू के बारे में लिखते हैं कि पंडित जी हिटलर और मुसोलिनी से घृणा करते थे और इतनी घृणा करते थे कि उन दोनों के साथ मिलने से उन्होंने एक ऐसे समय में इंकार कर दिया जब जवाहरलाल गुलाम देश के नेता थे और हिटलर और मुसोलिनी अपने प्रताप से दुनिया को दहला रहे थे। स्पेन में गृहयुद्ध मचा, उसमें भी पंडित जी की सारी सहानुभूति फासिस्टों के खिलाफ थी। इसी चैप्टर में दिनकर नेहरू के बारे में लिखते हैं कि 1937 के आस-पास मॉडर्न रिव्यू में नेहरु ने अपनी आलोचना ख़ुद लिखी मगर चाणय नाम से और नेहरू अपने बारे में जनता को आगाह करते हुए लिखते हैं कि जनता को जवाहरलाल से सावधान रहने की चेतावनी दी थी क्योंकि जवाहर लाल के सारे ढब-ढांचे तानाशाह के हैं।

वह भयानक रूप से लोकप्रिय है, उसका संकल्प कठोर है, उसमें ताकत और गुरूर है, भीड़ का वह प्रेमी और साथियों के प्रति असहनशील है। दिनकर लिखते हैं कि इस तरह से आत्म विश्लेषण करने वाला आदमी तानाशाह नहीं होगा। वैसे एक दौर था जब भारत के नेता भारत में ही नहीं, दुनिया भर में लोकतंत्र के सवाल को लेकर राय रखते थे, बोलते थे और तानाशाहों से दूरी बरतते थे। आज उल्टा हो रहा है। तानाशाह को भी दोस्त बताया जा रहा है। आज जब दुनिया में लोकतंत्र कमज़ोर किया जा रहा है, वो साहस कहां है जो इन प्रवृत्तियों के खिलाफ बोलने के लिए ज़रूरी है? भारत की भूमिका या है? जुलाई 2014 में ब्रिस देशों के सम्मेलन में गाजा पर हुए इजऱाइली हमले के बारे में निंदा प्रस्ताव पास होता है। साझा बयान टाइप। प्रधानमंत्री मोदी उस सम्मेलन में कहते हैं कि एसिलेंसिज़ अफगानिस्तान से लेकर अफ्रीका तक के इलाकों में टकराव और उफान का दौर चल रहा है। गंभीर अस्थिरता पैदा हो रही है और हम सब पर असर पड़ रहा है। मुल्क के मुल्क तारतार हो रहे हैं। हमारे मूक दर्शक बने रहने से खतरनाक परिणाम हो सकते हैं।

इस बयान के चंद दिन बाद राज्य सभा में विपक्ष की मांग पर गाजा पर हमले को लेकर चर्चा होनी थी। लिस्ट हो गई थी। तब की विदेश मंत्री सुष्मा स्वराज ने राज्य सभा के सभापति को पत्र ही लिख दिया कि चर्चा नहीं होनी चाहिए। अरुण जेटली भी चर्चा का विरोध करने लगे विपक्ष ने बहिष्कार किया। अंत में चर्चा नहीं हुई। जबकि भारत की संसद में 2003 में इराक़ हमले के खिलाफ प्रस्ताव पास हुआ था तब बीजेपी ने उस प्रस्ताव का समर्थन किया था। मगर वही प्रधानमंत्री अपनी संसद में गाजा पर चर्चा कराने का नैतिक साहस नहीं दिखा सके। 1936 में इलाहाबाद में फिलिस्तीन कांफ्रेंस बुलाई गई थी। उसमें राम मनोहर लोहिया, जेपी कृपलानी और शौक़त अली जैसे बड़े नेता हिस्सा लेने गए थे। उसी समय यूपी के करीब करीब हर जि़ले में फिलिस्तीन के प्रति भाईचारा जताने के लिए कांग्रेस ने फिलिस्तीन दिवस मनाया था। कांग्रेस भारत की आजादी के लिए ही नहीं लड़ती थी मगर अपने सम्मेलनों में फिलिस्तीन पर प्रस्ताव भी पास करती थी। क्या आपने सुना है कि आज की कांग्रेस पार्टी दुनिया में खत्म हो रहे लोकतंत्र को लेकर सम्मेलन कर रही है और प्रस्ताव पास कर रही है, या वह इस मोड़ पर अपनी कोई ऐसी भूमिका देखती भी है?

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