दंगे पर सियासत

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जब भी देश में साम्प्रदायिक सौहार्द बिगड़ा, उसके पीछे कहीं ना कहीं सियासतदानों की महती भूमिका रही है और इसका दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि जान-माल का नुकसान सिर्फ आम आदमी के हिस्से आया है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रप के भारत आगमन पर जब उनकी दिल्ली में अहम मौजूदगी रही, तब दिल्ली का उत्तर-पूर्वी इलाका सियासत की आग में झुलस उठा। अब उस पर आरोप-प्रत्यारोप के साथ ही सियासत शुरू हो गयी है। जो सियासत में हैं, वे भी अपने गिरेबां में झांकने के बजाय दूसरी पार्टियों पर सवाल उठा रहे हैं और वो पार्टियां भी आग पर पानी डालने के बजाय घी डालने का काम कर रही हैं। कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी ने इसी सिलसिले में गुरुवार को राष्ट्रपति भवन जाकर ज्ञापन दिया है और केन्द्र सरकार पर बीते तीन दिनों में सुलग रही दिल्ली को लेकर मूक दर्शक बने रहने का आरोप लगाया है। मामले की गंभीरता को समझने के लिए दिल्ली हाईकोर्ट की चिंता को भी रेखांकित किया जा सकता है।

इस मसले पर आधी रात से तीन बार हाईकोर्ट के जज बैठे और सुननवाई की। टिप्पणी गौरतलब है, दिल्ली में एक और 84 जैसे दंगे की प्रतीक्षा नहीं की जा सकती। विधायिका और कार्यपालिका की लचर भूमिका पर कोर्ट ने सीधे तौर पर सवाल उठाया है। सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि अमेरिका-ब्रिटेन की पुलिस से सीखने की जरूरत है। बेशक यह सवाल तो है कि पार्टियों के नेता इतने दिनों से नफरत पैदा करने वाले भाषण दे रहे थे, तब दलों का शीर्ष नेतृत्व खामोश क्यों बैठा हुआ था? सवाल तौर पर केन्द्र सरकार से भी है, उसे आखिर किस बात का इंतजार था। जो हुआ और जिस पैमाने पर बीते तीन दिनों में दिल्ली के एक हिस्से में दंगे की आग भड़की, उसके स्वरूप और तीव्रता से अंदाजा लगाया जा सकता है कि जो हुआ, उसकी तैयारी एकाध दिन की अथवा स्वत: स्फूर्त नहीं थी, हफ्तों से तैयारी चल रही होगी। ट्रकों पत्थरों की बरामदगीए सैकड़ों राउण्ड फायरिंग और निर्ममतापूर्वक की गयी हत्याएं काफी कुछ बयान कर देती हैं।

फौरी तौर पर पुलिस की भूमिका नजर आती है लेकिन उसके पीछे की स्थितियों का पता चल ही नहीं पाता, यदि चला भी तो सियासी आरोप-प्रत्यारोप के बीच उसकी अहमियत खत्म हो जाती है। वैसे विरोध की जड़ में नागरिकता कानून है, जिसे संसद के दोनों सदनों ने पारित किया है, काफी हैरानगीभरा है। इसलिए भी कि विरोध या परामर्श के नाम पर अराजकता फैलाने का हक नहीं दिया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट में कोई मामला चल रहा हो और तिस पर उसे ही लेकर लोग सड़कों पर फैसले का इंतजार किये बिना उतरें तो भी अब तक के इतिहास में अनोखा मसला है। यह भी दिलचस्प है कि भय आधारित धाराओं को लेकर सड़क पर बैठे लोगों को समझाने के लिए सुप्रीम कोर्ट को वार्ताकार नियुक्त करना पड़े।

सरकार भी अपना सीधे प्रतिनिधि आंदोलित लोगों के बीच ना भेजकर मीडिया के जरिये नागरिकता कानून के बारे में अपनी मंशा को स्पष्ट करे। दरअसल यही नहीं, बातचीत की स्थिति बने भी तो 10-12 की संख्या में नहीं, पूरा का पूरा जत्था गृहमंत्री के आवास की तरफ मार्च करने की कोशिश करे। विचित्र यह भी है कि दिल्ली में ही उसी तर्ज पर किसी अन्य स्थान को बंद करने का हौसला दिखाई दे। इस सबकी दिखा क्या है? यह समझने की भी जरूरत है। कानून में वाकई कोई कमी रह गयी तो वो सुप्रीम कोर्ट के जज बताएंगे लेकिन संसद में कानून बनाने वालों को भी यह सोचने की जरूरत है, उनसे किस स्तर पर कहां चूक हो गई।

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