एयर इंडिया के बाद रेलवे की बारी

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भारत सरकार अपनी विमानन कंपनी एयर इंडिया को बेचने के प्रयास में है। पिछले कई सालों से इसका प्रयास हो रहा है पर खरीददार नहीं मिल रहे हैं। इसके संभावित खरीददारों को सरकार ने इतनी सहूलियतें दी हैं कि किसी भी कारोबारी या प्रतिस्पर्धी माहौल में वैसी सहूलियतों की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। पर चूंकि सरकार को किसी तरह से उसे बेच कर बाहर होना है इसलिए वह कुछ भी करेगी। वैसे भी सरकार के वाणिज्य मंत्री और बरसों से वित्त मंत्री इन वेटिंग पीयूष गोयल ने कई बार यह फैंसी लाइन बोली है कि बिजनेस करना सरकार का बिजनेस नहीं है। हालांकि यह अलग बात है कि सरकार जिस भी बिजनेस में रही वह दूसरी कंपनियों की तरह बिजनेस नहीं था, बल्कि एक सेवा की तरह था।

बहरहाल, अब सरकार सारे बिजनेस या लोक कल्याणकारी राज्य में सेवा के तौर पर शुरू किए गए बिजनेस बाहर होने के लिए हाथ-पैर मार रही है। एयर इंडिया के साथ साथ सरकार पेट्रोलियम, ऊर्जा, खनन, शिपिंग जैसे मुनाफा कमाने वाले हर बिजनेस से अलग हो रही है। इसी कड़ी में अगली बारी भारतीय रेलवे की है। हालांकि जिन मंत्री महोदय ने कई बार कहा कि बिजनेस करना सरकार का बिजनेस नहीं है वे बार बार सफाई देते रहते हैं कि भारतीय रेल का निजीकरण नहीं होगा। लेकिन साथ साथ इसे निजी हाथों में देने की कवायद भी चलती रहती है। चूंकि भारतीय रेलवे आम आदमी से जुड़ी है इसलिए सीधे तौर पर इसे बेच देने की बात नहीं जा रही है। इसे टुकड़ों टुकड़ों में निजी हाथों में दिया जा रहा है ताकि लोगों को समझने में थोड़ा समय लगे।

इसकी शुरुआत कुछ स्टेशनों को निजी हाथों में देने से हुई थी। वह निजीकरण की दिशा में पहला बडा कदम था। हालांकि उससे पहले सरकार ने कुछ सेवाओं का निजीकरण कर दिया था। जैसे स्टेशनों से लेकर ट्रेनों के अंदर की साफ-सफाई का जिम्मा निजी कंपनियों को दे दिया गया था। असल में इस सरकार से पहले भी सरकारों का प्रयास यहीं रहा कि किसी तरह से इसे घाटे का उपक्रम बनाए रखा जाए। इसलिए भरतियां नहीं की गईं, ट्रैक्स ठीक नहीं किए गए, सिग्नलिंग प्रणाली को सुधारा नहीं गया, आधुनिक रेल कोचों की खरीद नहीं की गई और इन सबका कुल जमा नतीजा यह रहा है कि रेलवे की हालत लगातार खराब होती गई। इस पर लोगों की भीड़ बढ़ती गई और बुनियादी सुविधाएं घटती गईं। इस वजह से दुर्घटना, गाड़ियों का लेट होना बहुत आम हो गया। सोचें, कितने सुनियोजित तरीके से रेलवे की हालत बिगाड़ी गई है।

कि आज से 20 साल पहले भारतीय रेलवे में 16 लाख लोग काम करते थे और 20 साल में जब इसका नेटवर्क बहुत बड़ा हो गया तो अब 13 लाख लोग इसमें काम करते हैं। बहरहाल, सरकार ने प्रयोग के तौर पर कुछ स्टेशनों के रख-रखाव का जिम्मा निजी कंपनियों को दिया। उसके बाद अगले कदम के तौर पर दो ट्रेनों को निजी हाथ में दिया गया। इसमें दिल्ली-लखनऊ के बीच चलने वाली तेजस ट्रेन भी शामिल है। इस प्रयोग में स्टाफ रखने के लेकर किराया तय करने तक का काम निजी कंपनी को दिया गया। अब इससे अलग तीसरा प्रयोग होने जा रहा है। सरकार ने 109 जोड़ी ट्रेनों के लिए टेंडर निकाला है। सरकार ने अभी इसमें रूचि रखने वालों लोगों से अपनी रूचि जाहिर करने को कहा है। इसके बाद भी सरकार यहीं कहेगी कि वह रेलवे का निजीकरण करने नहीं जा रही है पर यह निजीकरण की दिशा में उठाया गया बहुत ठोस कदम है।

असल में यह रेलवे के भीतर एक दूसरा रेल नेटवर्क तैयार करने की तरह है। जैसे सरकार ने संचार के क्षेत्र में या विमानन के क्षेत्र में निजी कंपनियों को मौका दिया और धीरे धीरे इन सेक्टर्स में उनका वर्चस्व स्थापित होता गया और पहले से चलती सरकारी कंपनी मुकाबले से बाहर हो गई। हालांकि ऐसा नहीं है कि सरकारी कंपनियों की सेवा बहुत शानदार रही पर उन्होंने पैसे खर्च करके अपनी सेवा अच्छी होने का प्रचार कराया और इसी तरीके से सरकारी कंपनियों की परफारमेंस खराब कराई। उन सेवाओं की तरह रेलवे में नहीं किया जा सकता है क्योंकि निजी कंपनियां इतना निवेश नहीं करेंगी कि वे अपनी रेल लाइन का जाल बिछाएं या पूरे नेटवर्क खड़ा करें। इसलिए उनको भारतीय रेलवे का नेटवर्क ही दिया जाएगा, जिसके बदले में वे कुछ लाइसेंस फीस टाइप से चुकाएंगे। स्टेशनों से लेकर रेलवे ट्रैक और बिजली का नेटवर्क सब सरकार का होगा। वे सिर्फ अपने लिए नए रेल कोचेज खरीदेंगे, बिल्कुल ऐसा ही विमानन सेक्टर में भी हुआ था।

सरकार ने निजी विमान कंपनियों को विमानन सेक्टर में आने की अनुमति दी तो उन्हें सारे हवाईअड्डों के इस्तेमाल और भारतीय विमानन प्राधिकरण का सारा नेटवर्क दिया गया। कंपनियां लीज पर अपना विमान ले आईं। उन्होंने इसका अपना किराया तय किया, कम वेतन पर कर्मचारी रखे, ज्यादातर लोगों को ठेके पर रखा गया और विमान के अंदर कुछ बेहतर सेवाएं दी गईं। उसके बाद की कहानी सबको पता है। इन निजी कंपनियों ने पूरे विमानन सेक्टर पर कब्जा कर लिया और एयर इंडिया घाटे में जाते जाते हजारों करोड़ रुपए के कर्ज में डूबी और अब बिकने जा रही है।

ठीक यहीं हाल भारतीय रेलवे का होगा। उसकी ट्रैक्स पर निजी ट्रेनें चलेंगी, जिनकी सेवाओं का खूब प्रचार होगा। उनके कोचेज नए होंगे और उसकी भी खूब तारीफ होगी। तेजस की तरह इन ट्रेनों को भी सरकारी ट्रेनों के ऊपर तरजीह दी जाएगी ताकि वे समय से चलें। पहले हो सकता है कि इनकी सेवाएं सस्ती भी रहें, जिससे लोग इनको तरजीह देंगे। फिर धीरे धीरे भारतीय रेल भी इंडियन एयरलाइंस की गति को प्राप्त होगा। रेलवे का पूरा नेटवर्क टुकड़ों टुकड़ों में या एकमुश्त किसी निजी कंपनी के हाथ में चला जाएगा।

अजीत दि्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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