पीएम ने ही वादा तोड़ा

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यह बात किसी अधिकारी या सामान्य मंत्री ने नहीं, बल्कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कही थी। उन्होंने राष्ट्र से वादा किया था कि जैसे ही कोरोना वायरस की वैक्सीन तैयार होगी, उसे सभी भारतीयों को लगाया जाएगा। कई महीने पहले उन्होंने कहा था कि सभी भारतीयों को उसे लगाया जाएगा, इसकी तैयारी की जा रही है। लेकिन अब सरकार ने कह दिया है कि संभव है सबको टीका न लगे। पिछले दिनों केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव राजेश भूषण ने कहा कि सरकार ने कभी भी यह नहीं कहा था कि देश में सभी लोगों का टीकाकरण किया जाएगा। ये अजीब मसला है। अगर प्रधानमंत्री का कहना सरकार का कहना नहीं है, तो फिर किसकी बात पर लोग भरोसा करेंगे? भूषण ने सरकार की इस राय का खुलासा किया कि अगर एक आवश्यक संख्या में लोगों को टीका दे दिया जाए, तो वायरस के प्रसार की चेन टूट जाएगी। आईसीएमआर के महानिदेशक बलराम भार्गव ने भी कहा है कि एक बार प्रसार की चेन टूट गई, तो फिर सबको टीका देने की जरूरत नहीं पड़ेगी। जिन्हें संक्रमण हो चुका है और जो ठीक हो चुके हैं, सरकार के अनुसार ऐसे लोगों को टीका देने की जरूरत पर अभी पूरी दुनिया में चर्चा चल रही है। बहरहाल, मुख्य सवाल है कि क्या इस बात का कोई वैज्ञानिक आधार है?

क्या सबको टीका दिए बिना महामारी से छुटकारा मिलेगा? और यह कैसे तय होगा कि किसे टीका दिया जाएगा और किसे नहीं? जो जानकारियां सामने हैं उनके मुताबिक कोविड को हरा चुके सभी लोगों की भी अवस्था एक जैसी नहीं होती। कुछ लोगों के शरीर में एंटीबॉडी विकसित होती हैं और कुछ लोगों में नहीं भी होती हैं। एंटीबॉडी शरीर में विकसित हो जाने के बाद भी उनसे व्यति को कोविड-19 से स्थाई सुरक्षा मिल जाती हो, इसका भी प्रमाण अभी तक नहीं मिला है। एंटीबॉडी कितने दिनों तक शरीर में रहती हैं, इस पर भी विवाद है। कई अध्ययनों में पाया गया है कि एंटीबॉडी संक्रमण से ठीक हो चुके लोगों के शरीर में सिर्फ कुछ ही हफ्तों तक रही। इतनी सारी जानकारी के अभाव में टीका सिर्फ सीमित संख्या में लोगों को लगाने का निर्णय पर अचरज और आक्रोश के अलावा और या हो सकता है? यहां ये भी गौरतलब है कि विकसित देश अपने सभी नागरिकों को वैसीन लगवाने का ऐलान कर चुके हैं। तो भारत सरकार इस जिम्मेदारी से पीछे क्यों हट रही है? वैसे भी कोरोना वायरस को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इतनी बैठकें कर रहे हैं, वैक्सीन वालों से बात कर रहे हैं, राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बात कर रहे हैं तो टेस्टिंग के बारे में बात क्यों नहीं करते हैं?

भारत में पिछले तीन महीने से टेस्टिंग नहीं बढ़ी है। हर दिन औसतन 11 लाख टेस्टिंग हो रही है। दूसरे, टेस्टिंग की एक दर देश में तय नहीं हो पा रही है। कई बार अदालतों ने भी टेस्टिंग की दर को लेकर सवाल उठाए, फिर भी देश भर के राज्यों में अलग- अलग दर पर कोरोना वायरस की टेस्टिंग हो रही है। टेस्टिंग की दरों में भी मामूली नहीं, बल्कि बड़ा अंतर है। ज्यादातर राज्यों ने सात महीने तक ऊंची दर पर टेस्टिंग के बाद इसकी दर में कमी की और निजी लैब्स के लिए एक दर तय की। लेकिन अब भी यह दर काफी ऊंची है। जैसे सबसे बेहतर स्वास्थ्य सेवा वाले राज्य केरल में टेस्टिंग की दर 21 सौ है। असम में एक बार आरटी-पीसीआर टेस्ट कराने का खर्च 22 सौ रुपये है। आंध्र प्रदेश में आरटी-पीसीआर टेस्टिंग की दर 16 सौ रुपये है। झारखंड सरकार ने एक टेस्ट की दर 15 सौ रुपये और राजस्थान सरकार ने 12 सौ रुपये तय की है। दिल्ली में आठ से 12 सौ तक टेस्टिंग की दर है। उत्तर प्रदेश सरकार ने सात सौ तो ओडि़शा सरकार ने चार सौ की रेट तय की है। पश्चिम बंगाल में साढ़े नौ सौ रुपये लगते हैं तो गुजरात में आठ सौ रुपये। प्रधानमंत्री इस मामले में पहल कर सकते हैं और जिन राज्यों में अब भी टेस्ट की दर बहुत ऊंची है उसे कम कराने के लिए कह सकते हैं।

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