वादाखिलाफी का नतीजा भुगतती जनता

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कोविड की दूसरी लहर में देश के लोगों को इलाज कराने में संघर्ष करना पड़ा था। भारत दुनिया की फार्मेसी है, लेकिन यहां जरूरी दवाओं की कमी रही। दुनिया की वैक्सीन राजधानी होने के बावजूद लोगों को कोरोना के टीके लगवाने के लिए दर-बदर भटकना पड़ रहा है। सवाल उठता है कि महामारी से लडऩे के लिए जो भी कुछ जरूरी था, भारत उसके लगभग हर कदम पर क्यों लडख़ड़ाया? दरअसल सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार के जितने भी वादे किए जाते हैं उनको जल्द ही भुला दिया जाता है और उनका क्रियान्वयन लगभग न के बराबर होता है। भारत की अब तक तीन राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीतियां आ चुकी हैं। अगर पहली दो स्वास्थ्य नीति के घोषणाएं ही पूरी कर दी जाती तो आज स्वास्थ्य तंत्र और नागरिकों की सेहत अलग होती। सिर्फ महामारी के समय पर ही नजऱ डालते हैं। राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के बाद नेताओं में भारत के स्वास्थ्य तंत्र को मजबूत करने पर काफी चर्चा हुई। फिर भी एक साल बाद स्वास्थ्य सेवाओं की उपलधता में बढ़ोतरी नहीं हुई। सरकारों की वादाखिलाफी का यह इकलौता उदाहरण नहीं है।

वैक्सीन उपलब्ध होने से काफी पहले कई भारतीय राज्यों ने, खासतौर पर जहां चुनाव हो रहे थे, नागरिकों को मुफ्त टीके लगवाने का वादा किया। आम बजट 2021-22 में भी कोरोना टीके के लिए 35 हजार करोड़ रुपए आबंटित किए गए। फिर भी केंद्र व राज्य सरकारों ने वादे तोडऩे के तरीके निकाल लिए। राज्य सरकारों ने घोषणा की कि सिर्फ सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों में टीका मुफ्त रहेगा। वहां तो वैसे भी स्वास्थ्य सेवाएं मुफ्त होती हैं, तो या राज्य पहले पैसे लेने की सोच रहे थे और फिर इसे मुफ्त किया? केंद्र ने कहा कि वह सिर्फ 45 वर्ष से ऊपर वालों के टीके का खर्च उठाएगी, बाकी का नहीं। केंद्र और राज्यों के अधूरे वादों की फेहरिस्त लंबी है और इससे लोगों का स्वास्थ्य सेवाओं पर से भरोसा उठता है। लोग सरकारों को इसलिए चुनते हैं कि जब ऐसी मुसीबत की घड़ी और आपदा आएगी तो सरकारें उनके लिए जरूरी इंतजाम करेंगी। लेकिन महामारी की दूसरी लहर में बिस्तरों, वेंटिलेटर, दवाइयों, वैक्सीन और यहां तक कि ऑक्सीजन के लिए लोगों को खुद व्यवस्था करनी पड़ी। साथ ही, ‘कथनी और करनी ‘ में अंतर रहा है, जहां नेताओं ने खुद उन बातों का पालन नहीं किया, जिसका पालन वे लोगों से चाहते थे।

इससे स्वास्थ्य अधिकारियों और लोगों का विश्वास बना नहीं रह सका। लेकिन यह पहली बार नहीं है, जब भरोसा टूटा है। फिर बात आती है, आखिर यह सिलसिला कब रुकेगा? यह नेताओं को बाबा भारती और खडग़ सिंह की कहानी याद दिलाने का वक्त है, जिसे प्रतिष्ठित लेखक यशपाल ने लिखा था। कहानी में, बाबा भारती का प्रिय घोड़ा हड़पने के लिए, डाकू खडग़ सिंह एक लाचार और असहाय बुजुर्ग का वेश धारण करके सड़क किनारे बैठ जाता है। जब बाबा वहां से अपने घोड़े सुल्तान के साथ गुजरते हैं तो छद्म रूप में खडग़ सिंह मदद की गुहार करता है। जब बाबा मदद करने के लिए रुकते हैं तो खडग़ सिंह घोड़ा लेकर भागने लगता है। भागने से पहले वह अपनी असली पहचान बताता है। तब बाबा उससे कहते हैं कि वह लोगों को न बताए कि उसने धोखा देकर घोड़ा छीना है। खडग़ सिंह पूछता है कि ऐसा यों? तब वह कहते हैं कि अगर लोगों को इसका पता चलेगा, तो वे गरीबों पर भरोसा करना बंद कर देंगे। खडग़ सिंह घोड़ा लौटा देता है। अब यह देखना है कि भारतीय नेता लोगों के खोए हुए विश्वास को वापस पाने के लिए कब और क्या करेंगे?

डॉ. चन्द्रकांत लहरिया
(लेखक जन नीति और स्वास्थ्य तंत्र विशेषज्ञ हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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