इस 27 दिसंबर से 30 दिसंबर तक भोपाल के गौहर महल में ग्रामीण स्त्रियां अपने हुनर का प्रदर्शन कर रही हैं। कोरोना के प्रारंभ होते ही कुछ लोग महानगरों में अटक गए। महिलाओं ने परिवार के उारदायित्व का वहन किया। इस उत्सव में स्वादिष्ट भोजन भी बनाए जा रहे हैं। ज्ञातव्य है कि गौहर महल में ही सूरज बडज़ात्या की ‘एक विवाह ऐसा भी’ की शूटिंग हुई थी। भोपाल अपनी किस्सागोई के लिए भी प्रसिद्ध है। याद आता है सलीम जावेद की लिखी ‘शोले’ में सूरमा भोपाली का पात्र। जावेद कुछ समय तक भोपाल में पढ़े हैं। भोपाल में आम आदमी सूफी नगमे गुनगुनाता रहा है। सूफी काव्य व दर्शन का किसी एक मज़हब से कोई संबंध नहीं है। सूफी निरंतर यात्रा करते रहते हैं। उनकी कोई मंजि़ल नहीं है। यह गूढ़ रहस्य समझने में समय लगता है कि राह ही मंजि़ल है। यह कार्यक्रम हमारी सदियों पुरानी संस्कृति को पुन: याद करने का अवसर बन गया। सांस्कृतिक चेतना जगाने का लाभ कभी- कभी वैचारिक संकीर्णता वाले दबोच लेते हैं और उसे अपने छद्म, देश प्रेम से जोड़ देते हैं। अवाम को यह खेल मनभावन लग रहा है। अत: इस पर ऐतराज नहीं उठाया जा सकता।
फिल्म ‘टॉयलेट एक प्रेम कथा’ में एक पंचायत प्रमुख अपने उम्र दराज अनुभव का लबादा पहने एक आधा-अधूरा श्लोक बोलकर अपने ज्ञान की धाक जमाना चाहता है। नायक कहता है कि या आपकी किताब में आधा श्लोक ही लिखा है। यह कहां लिखा है कि शौचालय घर से दूर बनाया जाए। ग़ौरतलब है कि कुछ लोग टूटी-फूटी संस्कृत या अंग्रेजी बोलकर अपने को ज्ञानी बताने लगते हैं। फिल्म ‘पूरब और पश्चिम’ में नायक अंग्रेजों की महफिल में इसी तरह एक धाकड़ संवाद अंग्रेजी में बोलता है। ऐसे सीन बड़े पसंद किए जाते हैं। फिल्म ‘गाइड’ में भी एक ढोंगी टूटी-फूटी संस्कृत बोल कर अपनी धाक जमाता है तो नायक अंग्रेजी बोल कर उसे हतप्रभ कर देता है। भाषा को आप कोड़ा भी बना सकते हैं और मरहम भी। भोपाल का आदमी किसी महानगर में अपनी बात कहने के अंदाज़ से पहचाना जा सकता है। कुछ शब्दों के उच्चारण से स्थान की पहचान बताई जा सकती है। कहते हैं कि एक दौर में भोपाल में आलसी लोगों का एक लब था जिसमें लेटा हुआ आदमी, बैठे हुए आदमी को हुम दे सकता है और बैठा हुआ आदमी खड़े हुए आदमी को आदेश दे सकता है। कुछ अनुभवी सदस्य लब में लेटे-लेटे ही प्रवेश करते थे।
वे समुद्री गोताखोर की तरह डाइव मारते थे। आलस्य ओढ़कर मेहनत से बचा जा सकता है। सईं परांजपे की फिल्म ‘कथा’ में खरगोश और कछुए की चाल की कहावत से प्रेरित दो पात्र रचे गए थे। एक पात्र नसीरुद्दीन शाह ने और दूसरा पात्र फ़ारुख़ शेख़ ने अभिनीत किया था। प्राय: लोग अपने स्वार्थ की बात सुन लेते हैं और मेहनत करने वाले काम को अनसुना होने का अभिनय करके टाल देते हैं। बहरहाल ‘राग भोपाली’ उत्सव देश के अन्य शहरों व प्रांतों में भी आयोजित हो सकता है। पुराने हुनर को याद रखना जरूरी है। शहर अपनी खासियतों से भी जाने जाते हैं। जैसे ‘रतलामी’ नमकीन आगरे का पेठा, बनारसी साडिय़ां लोकप्रिय हैं। एक दौर में भोपाल की मशहूर कव्वाल शकीला बानो भोपाली देश में लोकप्रिय हुईं। जावेद अक्तर कुछ समय भोपाल में पढ़े हैं और ‘सूरमा भोपाली’ का पात्र उन्होंने भोपाल के व्यक्तित्व की प्रेरणा से ही गढ़ा था। लखनऊ के गिलौटी कबाब प्रसिद्ध रहे हैं जैसे बरहानपुर का दराबा। खाकसार ने ‘दराबा’ नामक उपन्यास भी रचा है। बहरहाल ‘राग भोपाल’ ‘सूरमा भोपाली’ और ‘शकीला बानो भोपाली’ यादगार हैं। भोपाल की झील सबसे बड़ी झील मानी जाती है।
जयप्रकाश चौकसे
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)