खूंटे, रिश्ते और आजादी

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‘मैं’, ‘मैं’ हूं! ‘मैं’ अकेला! खाली हाथ आए थे खाली हाथ जाएंगे। लेकिन जिंदगी तो प्राप्त परिवार,प्राप्त रिश्तेदारी, जिम्मेवारी व सामाजिकता में बंधी होती है। जन्म से जो प्राप्त है उसमें ताउम्र बंधे रहना है। खुद अपने हाथों भी बंधन बनाते हैं। जिंदगी में अकेला, मस्त कलंदर कौन होता है? वह मस्त कलंदर, जिसका किसी से लेना देना नहीं और अपने हाल में मस्त जीना! सोचें, ऐसा हो तो दुनिया कैसी मस्त हो जाए। परहम खूंटे में बंधेजन्मते हैं। मां का, माता-पिता का खूंटा, परिवार, गोत्र, जाति, धर्म का खूंटा और फिर जन्मभूमि, राष्ट्रभूमि,मातृभूमि, पितृभूमि के खूंटे तो आगे गुरू का खूंटा, इहलोक की व्यवस्थाओं, नियम-कानून-संविधान, व्यवहार और लोकाचार केखूंटे ही खूंटे! मानो मानव सभ्यता का विकास खूंटों से जिंदगी चलवाना हो। और खूंटों से जिंदगी सार्वभौम-स्वतंत्र नहीं होती। वह बंधी और गुलाम होती है।

यह अलग बात है कि जब आदि मानव अफ्रीका की गुफा से निकला या उसकी चेतना के पट खुले तो वह तब सौ टका आजाद-स्वतंत्र था याकि अपने ब्रह्मा-विष्णु-महेश की त्रिमूर्ति ने सृष्टि रच आदमी-औरत को पृथ्वी पर उतारा तो दोनों निश्चित बंधनमुक्त, आजाद, स्वतंत्र, सार्वभौम थे। मामला उलझा हुआ है और दर्शनशास्त्र में इस पर कई दर्शन हैं। लगेगा जिंदगी को यदि अकेले ही जीना है तो सबकुछ छोड़ संन्यास धारण कर जंगल में बंधनमुक्त जीवन जीना पड़ेगा। वैसेगौरतलब है, जिनका अकेले का जीवनपथ रहा उन्हें बोधित्व प्राप्त हुआ औरयह अलग बात है कि उनसे भी खूंटे बने! मैं क्या लिखने बैठा था और क्या लिख रहा हूं। लिखना इस बिंदु पर है कि हमें जो संबंध प्राप्त होते हैं और हम जो संबंध बनाते हैं उन्हें जिंदगी में भला कैसे तौला जाए, कैसे याद किया जाए? उन सबके रोल को कैसे जांचा जाए? मैं संबंधों के झमेलों से बचा रहा। अपनी जिंदगी अलग एकाउंट, निजता लिए हुए चली।

बीस-इक्कीस साल की उम्र में दिल्ली के जेएनयू में दाखिला हुआ और छह महीने में लिख-लिख कर पैसा कमाने लगा। अपने बूते अपन स्वतंत्र। इसका अर्थ नहीं कि तीन बहनों, एक भाई के फर्ज में शादी-ब्याह, पढ़ाई, काम-धंधे में मैंने बेरूखी रखी। जो संभव था, उससे भी अधिक, उधार ले कर भी अपन ने बहुत कुछ किया। और उफ! उधारी या रिश्तेदारों से पैसा लेना। याद है एक रिश्तेदार ने साहूकार से दो-तीन हजार रुपए ब्याज पर दिला कर या जिया द्वारा बुआ से पांच सौ रुपए उधार लेने के अहसान में आंख तरेर कर कैसा तकाजा बना। उस पाठ ने मुझे हमेशा के लिए सिखाया कि उधार और ब्याज को कभी पालना नहीं और न संबंधों में लेन-देन रखना है। सच बात है जिंदगी पैसे से चलती है और पैसे का संस्कार घर के माहौल, पैसे पर बचपन में कष्ट, समझ-सीख-व्यवहार से बनता है। मैंने देखा, बूझा और ब्राह्मण की इस प्रवृत्ति को धारा कि लक्ष्मी चंचल है।

अपने यहां नहीं टिकेगी, आती-जाती रहेगी और जिसकी जैसी नियत उसको वैसी बरकत। जीने के अंदाज में पैसे के प्रति प्रवृत्ति का भारी रोल होता है। हम हिंदू पैसे, बुद्धि में गुलाम या गरीब रहे हैं इसलिए हिंदू घर-परिवार में कलह, उम्मीद, बंटवारे, ईर्ष्या, भूख, लालच, केकड़ेवाद में टांग खिंचाई और छोटी-छोटी बातों पर जो बड़े पहाड़ बनते हैं तो एक बुनियादी कारणपैसे के मनोविकार से संबंध निर्भरता और संबंधों में छीनाझपटी है। यहां मैं जरा भटकूंगा। अमेरिका-यूरोप में व्यक्तिगत स्वतंत्रता, निजता और अधिकारों की चेतना क्यों है? इसलिए कि घर-परिवार के खूंटे के बावजूद सभी सदस्यों को खूंटा तोड़ भागने देने का बंदोबस्त वहां है। 18वर्ष की उम्र के बाद संतान स्वतंत्र। उसे स्वंतत्र, मुक्त करने में माता-पिता की तैयारी तो सरकार का भी बंदोबस्त। पढ़ाई के कर्ज से लेकर धंधा शुरू करने, घर-जरूरतों के लिए मोर्गेज जैसी वित्तीय व्यवस्था।

मतलब जिंदगी को स्वतंत्र, उद्यमशील, अपनी तह अपने संबंध बनाने से ले कर मस्तमौला की तरह घूमने-फिरने, किट उठाकर दुनिया के किसी भी कोने में चल देने का वह सिस्टम वहां है, जिससे बुद्धिविन्यास और पुरूषार्थ अपने आप एवरेस्ट पर चढ़ाई से ले कर मंगल यात्रा की उड़ान बनवा देता है। क्या अपना समाज ऐसा कुछ लिए हुए है? वक्त की हवा में नई पीढ़ी को बदला हुआ बताया जाता है।लेकिन वह बेहूदापनहै। आज हिंदू समाज और घर-परिवार के खूंटों में रिश्ते ज्यादा तने हुए हैं। न हम इधर के रहे और न उधर के। चाहना पश्चिमी समाज जैसी है बॉलीवुड संस्कारों का उसमें तड़का है लेकिन नई पीढ़ी पहले से भी ज्यादा पुरानी पर आश्रित है और पुरानी पीढ़ी संतान के लिए ज्यादा घुट-खप रही है। नई पीढ़ी खूंटों-संबंधों से स्वतंत्रता के लिए फड़फड़ाए हुए है, उसमें अधिकार की जिद्द है लेकिन अवसरवादी अंदाज में। वह बिना स्वंतत्र होने की जोखिम के है। कहने को सब संबंधों से स्वंतत्रता चाहते हैं।

संबंधों को मुक्त लिव-इन-रिलेशन में भोगना चाहेंगे लेकिन घर के खूंटे पर निर्भरता, हक और उम्मीद भी रखेंगे।ऐसी गिचपिच बनी है कि लगता है मानों अपना समाज वक्त के बिना रोडमैप के है। बहरहाल मेरी जिंदगी गिचपिच से काफी मुक्त रही। यह गजब बात है। इसी से स्वतंत्र सोच की शायद बुनावट-हिम्म्त बनी होगी। लगता है पंडित दामोदर शास्त्री के कुनबे में मेरे पिता के स्वतंत्र-अलग फितरत लिए हुए होने से ऐसा हुआ। संयुक्त परिवार में रहना नहीं हुआ। फिर मैं खुद क्योंकि बीस-बाईस साल में ही घर से दूर, दिल्ली पहुंच चुका था तो नाते-रिश्तेदारी-संबंधों की जकड़न, चिंता नहीं। इसी से शायद सामाजिकता, चोंचलेबाजी का स्वभाव नहीं हुआ। मतलब निज जीवन की स्वतंत्रता, उसकी सार्वभौमता में जिंदगी का मौका बनता गया। अपने जीवन के फैसले खुद अपने हाथों तो जिम्मेवारियों का निर्वहन करते हुए भी भाई-बहन, रिश्तेदारों को उनके हाल में छोड़े रखा।

न गिले-शिकवे हुए और न पीछे मुड़ कर देखने की आदत बनी। यहां एक पेंच है। मेरी पत्नी की शिकायत है कि आप अपने में रमे रहे तो इससे घर-परिवार याकि पारिवारिकता-सामाजिकता में जीवन जीने का बच्चों का स्वभाव-संस्कार नहीं बना। वे भी आपकी तरह रूखे-सूखे हैं। वे भी कहीं आते-जाते नहीं हैं। आप अपने ननिहाल, बचपन की यादें लिए हुए हैं लेकिन ये तो ऐसा कोई भी अनुभव, रिश्तों, संबंधों के जनसंपर्कका कौशल लिए हुए नहीं हैं। अब क्या कहा जाए! वक्त ने अब गुंजाइश कहां छोड़ी है, जो नेट, सोशल मीडिया, एकल निजता और स्वतंत्रता को दरकिनार कर नई पीढ़ी मम्मी, पापा, सिस, भाई या या अंकल-आंटी से ज्यादा रिश्तों के नाम याद रखे और फिर उन रिश्तों में जिंदगी काटे। अब तो चौबीस घंटे साथ रहने वाले चेहरों के रिश्ते भी मतलब में बदल गए हैं। मतलब उसने मेरे लिए क्या किया और मैंने उसके लिए क्या किया?

प्रेम का, पति-पत्नी के रिश्तों और संबंधों के तमाम प्रकारों में नए मेजरमेंट बने हैं, जिसमें गिफ्ट तराजू है तो जन्मदिन मनाना, डिनर कराना आदि दसियों वे पैमाने हैं, जिनमें रिश्ते तौले जाते हैं। इसके अलावा स्कूल-कॉलेज की उम्र में सहपाठी, पीयर ग्रुप का असर रिश्तेदारी के खूटों से ज्यादा चुंबकीय हो गया है। ऐसा कि नौजवान पीढ़ी दोस्तों के साथ जिंदगी गुजारने का ख्याल बनाते हुएमाता-पिता व घर से मुक्तिसोचती है लेकिन जीवन निर्वहन में उनसे पैसे के हक के साथ! यह प्रवृत्ति दरअसल यूरोपीय-अमेरिकी देशों की परिवार रचना का देशी शॉर्टकट है। वहां 18 साल के साथ अपनी निजता, वयस्कता, स्वंतत्रता में अलग खूंटा बनाने के लिए लड़के-लड़कियां अलग होते हैं तो इससे भारत की नौजवान पीढ़ी में यह वायरस बना है कि वहां जिंदगी दोस्तों से है। यह ध्यान नहीं कि वहां हर शख्स, हर जिंदगी अपनी निजता को जब स्वतंत्रता से जीती है तो सब जिंदगी के अपने-अपने बिल का भुगतान खुद करने की आदत लिए होते हैं।

संतान तब मां-बाप पर भार नहीं होती है। मां-बाप जिम्मेदारी से मुक्त होते हैं तो दोस्त-पीयर ग्रुप में भी हर शख्स अलग-अलग एकाउंट से याकि कैंटीन-रेस्टोरेंट में हर दोस्त अपना खुद बिल पेमेंट करता हुआ मिलता है। मतलब जिंदगी स्वतंत्र होती है व बिना दूसरे पर बोझ के। पश्चिमी समाज में पिता बचपन को कोचिंग में नहीं बांधता है तो मां जीवन भर मन्नत मांगते हुए भी नहीं होती। हर पीढ़ी वहां जिंदगी को स्वतंत्रता से बिना बोझ के भरेपूरे अंदाज में जीती है। रिश्तों की व्यवस्था ऐसी है, रिश्ते ऐसे परिभाषित हुए (सदियों की मेहनत से और खासकर रेनाशां से) कि वहां हर शख्स घर-परिवार के खूंटे के बावजूद उससे उम्र विशेष में टूट कर अलग-निजी जीवन का रास्ता लिएहुए होगा।

उसी अनुसार समाज में मान्यता-व्यवस्था है, देश में कानून है। ठीक विपरीत हमारे घर-परिवार की व्यवस्था, संबंधों का तानाबाना जिंदगी को दूसरों की चिंता में खपा देने के लिए है। रिश्ते-नाते ऐसे गुंथे हैं कि या तो चिंता करो या उम्मीद करो और फिर शिकायत पालो, लड़ो-झगड़ो, कलह-ईर्ष्या और असुरक्षा में सोचते रहो। मानो यह कम हो तो आजाद भारत की सरकार ने रिश्तों में कानून बना घर-परिवारों में कलह के ऐसे दस रूप बना डाले हैं कि अपना यह निष्कर्ष दो टूक है कि पचास-सौ साल बाद हिंदू घर-परिवार, समाज ऐसा सड़ा-गला, अनाथ-लावारिस होगा कि जिंदगियों के लिए घर-परिवार की बीमारी महामारी जैसी होगी।

हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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