हालिया चुनावों में संघ कार्यकर्ता पश्चिम बंगाल, केरल और असम में ही सक्रिय थे। केरल से संघ और बीजेपी को विशेष उम्मीद नहीं थी, लेकिन असम में वापसी और बंगाल में बहुमत पाने या उसके निकट पहुंचने की आशा अवश्य थी। संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार अपने अध्ययन काल में कोलकाता में रहे थे। देश पर अंग्रेजों का राज था। उस वक्त डॉ. हेडगेवार बंगाल में सक्रिय क्रांतिकारी संगठन अनुशीलन समिति से जुड़े थे। माना यही जाता है कि बंगाल में हिंदुत्व की प्रबल धारा ने उनके विचारों को सुदृढ़ किया। 27 सितंबर, 1925 यानी विजयादशमी के दिन संघ की स्थापना हुई। इसके कुछ वर्षों के अंदर संघ जहां-जहां पहुंचा, उसमें बंगाल भी शामिल था।
संघ की सक्रियता
आजादी के पूर्व हिंदू महासभा के बंगाल में ताकतवर होने का एक बड़ा कारण संघ का सांगठनिक विस्तार भी था। लंबे समय तक स्वयंसेवक कांग्रेस के नेतृत्व में चलने वाले स्वतंत्रता संघर्ष का समर्थन करते रहे। लेकिन बंगाल में मुस्लिम लीग के तेजी से उभार और अलग पाकिस्तान की मांग के जोर पकड़ने के बाद संघ ने हिंदुओं के अंदर आत्मविश्वास और जागृति पैदा करने के लिए ज्यादा आक्रामक होकर काम किया। विभाजन की मांग और उसके बाद हुए सांप्रदायिक दंगों के कारण हिंदुओं के बीच संघ की पैठ व्यापक पैमाने पर बनी। बंगालवासी डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जनसंघ की स्थापना के पूर्व अगर संघ के नेताओं से लंबा विचार-विमर्श किया, तत्कालीन सरसंघचालक गुरु गोलवलकर के साथ कई दौर की बैठकें कीं तो इसी कारण क्योंकि राज्य में संघ के नेताओं-कार्यकर्ताओं से उनका संपर्क था।
कहने का अर्थ यह है कि संघ ने बंगाल में कोई पांच, दस या बीस वर्ष पहले काम शुरू नहीं किया। आजादी के पूर्व से ही संघ की शाखाएं और अन्य गतिविधियां थोड़े बहुत उतार-चढ़ाव के साथ वहां जारी रही हैं। संघ का मानना रहा है कि बंगाल में हिंदुत्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की धारा सदियों पुरानी है, जो मुस्लिम शासन काल और अंग्रेजों के समय से होती हुई लगातार प्रवाहित हो रही है। उसे पुनर्जीवित और सशक्त कर बंगाल में हिंदुत्व के प्रभाव को प्रखर करने के लक्ष्य से संघ और उससे जुड़े सारे संगठन काम करते रहे हैं। संघ और बीजेपी में पूर्ण समन्वय का ही परिणाम था कि एक प्रचारक और धर्म जागरण मंच के पदाधिकारी दिलीप घोष को पार्टी अध्यक्ष बनाया गया।
संघ अभी अपनी निचली इकाइयों से जानकारी इकट्ठा कर रहा है कि आखिर ऐसा क्या हुआ, जिससे बीजेपी को न अपेक्षित मत प्रतिशत मिला, न ही सीटें। संघ में कुछ लोग राज्य में शाखाओं की संख्या 50 हजार से ऊपर बताते हैं, लेकिन असल में इनकी संख्या 30 हजार से कुछ ज्यादा है। आदिवासी और दलित बहुल क्षेत्रों के साथ मुस्लिम बाहुल्य और मुस्लिम प्रभाव वाले इलाकों में संघ, विश्व हिंदू परिषद, धर्म जागरण मंच ही नहीं, सेवा कार्य करने वाले संगठनों का भी कार्य विस्तार काफी हुआ है। राज्य को कुल 226 मंडलों में विभाजित कर संघ अपनी गतिविधियों का संचालन कर रहा है।
2017 में बीजेपी ने संघ की सलाह से ही पार्टी संगठन को पांच जोन में बांटा था- उत्तर बंगाल, रार (दक्षिण-पश्चिम), नबाद्वीप (मध्य-दक्षिण), हुगली-मिदनापुर और कोलकाता। शक्ति केंद्रों को मजबूत करने के लिए विस्तारक संघ और विद्यार्थी परिषद से निकाले गए। चाय बागानों के मजदूरों के बीच संघ शांतिपूर्वक वर्षों से काम कर रहा है। इसका असर बंगाल से असम तक में दिखता है। इसके बावजूद बीजेपी को बंगाल में अपेक्षित सफलता नहीं मिली तो क्यों?
संघ परिवार के निचले स्तर के कार्यकर्ता बता रहे हैं कि मुस्लिम बहुल और मुस्लिम प्रभाव वाले इलाकों में तृणमूल ने बीजेपी के सत्ता में आने को लेकर डर का माहौल बनाया। उन्होंने हर उस तरीके का इस्तेमाल किया, जिससे बीजेपी समर्थक मतदान केंद्रों तक न जाएं। यह स्थिति गैर-मुस्लिम यानी सामान्य मतदान क्षेत्रों में भी हुई। चुनाव आयोग की पूरी सक्रियता के बावजूद कम्युनिस्टों की तरह अपने पक्ष में मतदान कराने की ऐसी गुपचुप और शांतिपूर्ण व्यवस्था की गई, जिसकी भनक बाहर खड़े सुरक्षाबलों तक को न मिले। बंगाल में सक्रिय संघ के कार्यकर्ता कहते हैं कि जो हिंसा अभी दिखाई पड़ रही है, दरअसल वह मतदान पूर्व ही आरंभ हो गई थी।
कार्यकर्ता हुए उदासीन
तो क्या बीजेपी को अपेक्षित सफलता इसी कारण नहीं मिली? संघ के लोग बता रहे हैं कि यह एक प्रमुख कारण हो सकता है, लेकिन समर्थक डटकर मुकाबला करने से पीछे क्यों हटे, इसकी पड़ताल करनी होगी। बीजेपी ने तृणमूल कांग्रेस और अन्य दलों से आए लोगों को पार्टी में प्रमुखता दी। उम्मीदवार बनाया, लेकिन उनमें से कुछेक को छोड़कर अन्य के बारे में प्रदेश संघ नेतृत्व से राय नहीं ली गई। इसलिए संघ और उससे जुड़े संगठनों के कार्यकर्ताओं को लगा कि जो लोग हमारे हिंदुत्व के विरुद्ध खड़े थे, वही आज उसका झंडा उठाकर वोट मांग रहे हैं। उन क्षेत्रों में जहां ये उम्मीदवार थे या जहां चुनाव प्रबंधन में मुख्य भूमिका निभा रहे थे, वहां बड़े पैमाने पर कार्यकर्ता निष्क्रिय हो गए। इससे तृणमूल की राह आसान हुई।
संघ की नजर में ये तात्कालिक कारण हो सकते हैं, जिन्हें दूर करने के लिए काम करना होगा। वैसे, उसके लिए चुनाव परिणाम का मूल निष्कर्ष यह है कि हिंदुत्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की जो धारा वहां बीज रूप में कायम थी, उसे व्यापक जन-स्वीकृति दिलानी होगी। ममता बनर्जी और उनकी सरकार की संघ और बीजेपी के प्रति हमलावर रुख से कठिनाइयां आएंगी, लेकिन कार्यकर्ताओं और समर्थकों का हौसला बनाए रखते हुए घुसपैठियों, गो-तस्करी, गोकशी आदि के विरुद्ध पहले से ज्यादा प्रखर अभियान जारी रखना होगा। हिंदुओं, हिंदू धर्मस्थलों या धर्म से जुड़े अन्य मुद्दों पर जहां भी किसी तरह का आघात पहुंचे, वहां पहले से ज्यादा आवेग के साथ खड़ा होना होगा।
अवधेश कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)