सात उपाय से ही मिलेगा न्याय

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भारत की राजधानी दिल्ली संवैधानिक दृष्टि से सीमित अधिकारों वाला राज्य है। यहां पर विधानसभा और सरकार के अधिकारों में अंकुश लगाने के लिए संसद में बिल पेश करने के बाद सियासी तापमान बढ़ गया है। प्रस्तावित कानून के अनेक प्रावधानों पर तीखा विवाद होने के बावजूद दोनों पक्ष सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के तीन साल पुराने फैसले पर एकमत दिखते हैं। दो पेज के इस एनसीटी बिल के साथ दिए गए उद्देश्य को शब्दश: माना जाए तो नए कानून से सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर बेहतर अमल होने के साथ राज्य और केंद्र के बीच सदभाव बढ़ेगा। संविधान के अनुच्छेद 141 के तहत सुप्रीम कोर्ट के फैसले देश का कानून माने जाते हैं, लेकिन कानून बनाने का हक सिर्फ संसद और विधानसभाओं को है। इसलिए कानून का माना जाना और कानून के होने में काफी फर्क है। पिछले कुछ सालों में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता, व्यभिचार और आईटी एट की धारा 66 ए को रद्द करने जैसे कई बड़े फैसले दिए हैं।

इन फैसलों को स्वीकार करने के बावजूद, केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के अनुरूप संसद के माध्यम से आईटी एट और आईपीसी में बदलाव करने की कोई पहल नहीं की। पिछले 70 साल से संविधान की इस गहराती खाई को पाटने में सरकार और संसद की विफलता से मुकदमेबाजी के साथ भ्रष्टाचार भी बढ़ रहा है। विधि आयोग और संसदीय समितियों की रिपोर्टों से इतर सुप्रीम कोर्ट के फैसलों में कानूनी विशेषज्ञता के साथ संवैधानिक बाध्यता का गुण होता है। इससे संसद द्वारा कानून बनाने में ज्यादा अड़चनें भी नहीं आएंगी। थिंक टैंक सीएएससी ने जनहित से जुड़े इन 7 मामलों की पहचान की है। एनसीटी बिल की तर्ज पर इन मामलों में भी सुप्रीम कोर्ट के फैसलों के अनुरूप, कानून में बदलाव की प्रक्रिया शुरू हो तो गवर्नेंस में सुधार के साथ मुकदमेबाजी भी कम हो जाएगी।

1. इमरजेंसी के पहले, 1974 में सुप्रीम कोर्ट के जज कृष्णा अय्यर ने अहम फैसले में सरकार को सबसे बड़ा मुकदमेबाज बताया था। उसके 36 साल बाद सरकार ने राष्ट्रीय मुकदमा नीति बनाई, लेकिन उस पर कभी सही तरीके से अमल नहीं हुआ। विधि आयोग की 126वीं रिपोर्ट व सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार बेवजह की सरकारी मुकदमेबाजी रोकने कानून में बदलाव हो तो सही मायनों में कल्याणकारी राज्य का सपना साकार होगा।

2. सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई 2013 के अहम फैसले से पार्टियों के चुनावी तोहफों पर रोक लगाने के लिए चुनाव आयोग को आदेश दिया था। इसे लागू करने के लिए जन प्रतिनिधित्व कानून में बदलाव होना चाहिए। इससे तमिलनाडु समेत सभी राज्यों में सही मुद्दों पर चुनाव होगा, जिससे विधानसभा और संसद में जनप्रतिनिधियों की गुणवत्ता में इजाफा होगा।

3. प्रकाश सिंह मामले में सन 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधारों पर ऐतिहासिक फैसला दिया था। इस बारे में विधि आयोग व प्रशासनिक सुधार आयोग की अनेक रिपोर्टों के बावजूद, संबंधित कानूनों में बदलाव नहीं हुआ।

4. गिरफ्तारी और हिरासत में पुलिसिया जुल्म को रोकने के लिए सन 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने डीके बसु मामले में कई आदेश पारित किए थे। विधि आयोग ने भी इस बारे में 113वीं रिपोर्ट में विस्तार से जिक्र किया है। महाराष्ट्र में सचिन वझे और दूसरे राज्यों के कई मामलों से पुलिस उत्पीडऩ के मामलों में बढ़ोतरी दिख रही है। इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट के 25 साल पुराने फैसले के अनुरूप जेल और पुलिस कानून में प्रभावी बदलाव नहीं किए गए।

5. सुप्रीम कोर्ट के दिसंबर 2020 के फैसले से पुलिस थानों में सीसीटीवी कैमरा लगाना जरूरी हो गया है। फैसले के अनुरूप पुलिस कानून में बदलाव के लिए केंद्र सरकार पहल करे तो नागरिक अधिकारों की रक्षा प्रभावी तरीके से सुनिश्चित हो सकेगी।

6. सुप्रीम कोर्ट ने सन 1977 में एक बड़ा फैसला देकर कहा था कि ‘जमानत नियम है और हिरासत अपवाद’। उसके बाद ऐसे कई फैसले आए। सुप्रीम कोर्ट के उन फैसलों के अनुरूप सीआरपीसी कानून में बदलाव हो जाए तो अदालतों को बेवजह की मुकदमेबाजी और जेलों को बेकसूर कैदियों के बोझ से मुक्ति मिल सकती है।

7. सुप्रीम कोर्ट के 2016 के फैसले के अनुसार अभियुक्त को एफआईआर की कॉपी मिलने का अधिकार है। फैसले के अनुसार संवदेनशील मामलों को छोड़कर अन्य सभी एफआईआर ऑनलाइन उपलब्ध होनी चाहिए। आम जन से जुड़े इस अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए सीआरपीसी कानून में बदलाव करने की जरूरत है। लॉकडाउन के दौर में आम जनता को अनेक तकलीफें हुईं, लेकिन सरकारी वेतन में कोई कटौती नहीं हुई। देश की आजादी की 75वीं वर्षगांठ और अमृत महोत्सव के राष्ट्रीय पर्व के मौके पर अफसर, मंत्री और जज, सर्वोच्च अदालत के ऐसे सभी फैसलों का व्यापक अध्ययन करें। उसके बाद जनता के अधिकारों को स्पष्ट और प्रभावी बनाने के लिए संबंधित कानून में बदलाव के लिए केंद्र सरकार संसद के माध्यम से पहल करे, तो एनसीटी बिल में लिखे उद्देश्य, गवर्नेंस सुधारने का राष्ट्रीय मौका बन सकते हैं।

विराग गुप्ता
(लेखक सुप्रीम कोर्ट के वकील हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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