अब चुनाव प्रचार का तरीका तो बदलेगा

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बिहार उत्तर प्रदेश के बाद दूसरा बड़ा राज्य है जो भारतीय जनतंत्र की तकदीर रचता है। लेकिन यह पहला राज्य है जहां कोरोना काल में विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। सवाल है कि इन चुनावों की शल-सूरत कैसी होगी? वादों और चुनावी घोषणाओं में कैसा परिवर्तन लाएगा कोरोना? चुनाव प्रचार कैसा होगा? महामारी के दिनों में चुनाव भारतीय समाज और जनतंत्र दोनों के लिए निस्संदेह एक नया अनुभव होगा। इन चुनावों में राजनीतिक संवाद के लोकप्रिय रूप, जैसे मिलना-जुलना, रैली, प्रदर्शन आदि शायद सामान्य रूप में देखने को न मिले। मास्क लगाकर, सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए चुने हुए कार्यकर्ताओं की बहुत सीमित संया की मीटिंग जरूर देखने को मिल सकती है। नेता और कार्यकर्ताओं डोर-टु-डोर कैंपेन कर वोट मांगते भी दिख सकते हैं और छोटी-छोटी साइकिल रैलियां भी नजर आ सकती हैं। 90 के पहले की ही तरह टैसी-टेंपो पर भोंपू लगा कार्यकर्ता अपने-अपने पार्टी के चुनाव चिह्नों पर मुहर लगाकर विजयी बनाने की अपील करते भी शायद हमें दिख जाएं। घर में बैठे, दलानों पर सुस्ताते और खेतों में काम करते लोगों के कानों में गूंजती ये आवाजें ही उन्हें इस बार लोकतंत्र के संदेशों से जोड़ेंगी। फ्लैक्स के होर्डिंग, बैनरों में भी कोई दिक्कत नहीं है।

दीवारों पर उम्मीदवारों और उनके चुनाव चिह्नों के पोस्टर जो चुनाव आयोग के निर्देशों के बाद हाल के दशकों में कम हो गए थे, संभव है इस बार लौट आएं। रैलियों में इस बार खर्च कम होंगे। जो धन रैलियों में खर्च होने से बचेगा, वह पार्टियां और उम्मीदवार प्रचार के अन्य साधनों को विकसित करने में लगा सकते हैं। इस बार के चुनावों में, खासकर गांवों में 70-80 के दशक में उपयुत होने वाले छोटे पर्चे और चुनावी पैंफ्लेट्स भी चुनाव प्रचार के माध्यम के रूप में लौट सकते हैं। एक बात तय है कि इस बार के विधानसभा चुनाव में प्रचार काफी कुछ वर्चुअल मोड में होगा। ऑनलाइन जनसंवाद रैलियां होनी शुरू ही हो गई हैं। फेसबुक लाइव, गूगल मीटिंग, ऑनलाइन चैट से पार्टियां और उम्मीदवार अपने कार्यकर्ताओं और बूथ एजेंटों को जोड़े रखेंगी। हर स्थानीय नेता और कार्यकर्ता का अपना ऑनलाइन ग्रुप होगा, जिससे ऑनलाइन संवाद के जरिए वह अपने प्रभार क्षेत्र को मॉनीटर कर पाएगा। इस चुनाव में स्मार्ट फोन का चलन बढ़ेगा। बहुत संभव है कि नेता और पार्टियां अपने कार्यकर्ताओं को स्मार्ट फोन और स्थानीय चुनाव कार्यालयों को लैपटॉप, डेस्कटॉप आदि से हाइटेक बनाकर रखें। वाट्सऐप ग्रुप, एसएमएस तो प्रचार के माध्यम बने ही रहेंगे।

टिकटॉक, वीचैट तथा अन्य चाइनीज ऐप्स बंद होने के कारण ऑनलाइन प्रचार की रचनात्मकता में शायद थोड़ी कमी आए परंतु गैर चीनी ऐप्स के माध्यम से ऐसे प्रयास चलते रहेंगे। बिहार के इस चुनाव में रैलियां और साक्षात प्रचार न के बराबर होने के कारण अखबारों के साथ-साथ टीवी चैनलों की भी भूमिका बढ़ जाएगी। बड़े नेता इस बार प्राय: ऑनलाइन माध्यमों से और टीवी चैनलों के जरिए ही लोगों तक पहुंचेंगे। रेडियो और कम्यूनिटी रेडियो का भी महत्व इस चुनाव में बढ़ सकता है। जाहिर है, ऑनलाइन प्रचार का वे राजनीतिक दल ज्यादा फायदा उठा पाएंगे, जिनके संगठित और व्यवस्थित कार्यकर्ता जमीनी स्तर पर फैले हुए हैं। ऐसे दल अपने समर्थकों को ज्यादा व्यवस्थित ढंग से ऑनलाइन संवादों से जोड़कर उन्हें निचले तलों और सीमांत क्षेत्रों तक पहुंचाने का काम कर पाएंगे। जहां तक सवाल चुनावी मुद्दों और दलों व प्रत्याशियों में लगने वाले आरोप-प्रत्यारोप का है तो इसकी बानगी अभी से दिखने लगी है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि चुनावी विमर्श बिजली, पानी, सड़क और विकास की जगह कोरोना वायरस की रोकथाम के लिए किए जा रहे उपायों, स्वास्थ्य ढांचे से जुड़े सवालों, जन स्वास्थ्य के अन्य मुद्दों और टेस्ट किट, जरूरी दवाएं, वेंटिलेटर आदि की उपलब्धता आदि के इर्द-गिर्द केंद्रित होगी।

सत्ता पक्ष इस क्षेत्र में अपने कार्यों को गिनाकर अपने लिए समर्थन जुटाने की कोशिश करेगा तो विपक्ष इन्हीं मुद्दों पर सरकार की असफलता को सामने लाने के जतन करेगा। इस महामारी के काल में राजनीतिक दल जनता को राहत देने के लिए दिखाई गई अपनी सक्रियता और की गई अपनी सेवा को राजनीतिक समर्थन जुटाने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। इस प्रकार बिहार विधानसभा के इस चुनाव में सेवा की राजनीति भी एक मुद्दा होगी। जैसा कि हम जानते हैं, बिहार से बड़ी संख्या के प्रवासी बड़े शहरों में रोजीरोजगार के लिए जाते हैं। इस कोरोना काल में उनमें से ज्यादातर अत्यंत दुख झेलते हुए बिहार लौट आए हैं। ये लौटे हुए प्रवासी बिहार के गांवों में फैले हुए हैं। ये अपने कुल-कुटुंब, गांव और राज्य की आर्थिक जीवन शक्ति के महत्वपूर्ण कारक रहे हैं। उनमें से ज्यादातर अब बेरोजगार हैं। हलांकि बिहार सरकार इनकी जीविका को पुनर्नियोजित करने की कोशिश में लगी है किंतु बिहार के पब्लिक ओपिनियन में उनका मुद्दा महत्वपूर्ण होकर उभरा है।

ऐसे में बेरोजगारी के साथ प्रवासियों के गृह प्रदेश में उनके रोजगार का प्रश्न चुनाव में भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा बनकर उभरेगा। सत्ता पक्ष इनकी घर वापसी, इनके रोजगार के लिए किए गए अपने प्रयासों को गिनाएगा तो विपक्ष की आलोचना प्रवासियों की परेशानियों और सरकार द्वारा उपयुक्त कदम उठाए जाए जाने में हुए विलंब पर केंद्रित होगी। सरकारी दलों के डिजिटल घोषणापत्र इन्हीं मुद्दों के आस-पास केंद्रित होंगे। गरीब कल्याण योजना और वायरस से उत्पीडि़त जनता को आर्थिक मदद तो इन घोषणापत्रों के पन्नों में दर्ज होगी ही। इस बार बिहार विधानसभा के चुनाव में यह भी देखना होगा कि किस प्रकार हमारी जनतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया अपने संवाद और संदेशों से राज्य के व्यापक गरीब-गुरबा और सीमांत पर बसे समुदायों को जोड़ पाती है। इस चुनाव में यह भी देखना होगा कि हमारे राजनीतिक दल किस प्रकार की रचनात्मक कार्ययोजना के साथ कोरोना वायरस के खिलाफ लड़ाई के एक महान योद्धा के रूप में अपने को प्रस्तुत करते हैं।

बद्रीनारायण
(लेखक स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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