प्रधानमंत्री और देश के सभी मुख्यमंत्रियों के बीच बातचीत अभी चल रही है, यदि हमारे टीवी चैनल उसका जीवंत प्रसारण करते तो उसमें कोई बुराई नहीं होती। देश की जनता को कोरोना से निपटने के सभी पैंतरों का पता चलता। वह अपनी स्वतंत्रत राय बना सकती थी। इसी तरह क्या ही अच्छा होता कि हमारे सभी टीवी चैनल यह बहस चलाते कि 17 मई को तालाबंदी खत्म की जाए या नहीं और यदि खत्म की जाए तो क्या-क्या सावधानियां रखी जाएं। ऐसी बहसों में देश के विभिन्न तबकों के विचारशील लोगों से राय ली जाती तो उससे सरकार को भी मार्गदर्शन मिलता और आम जनता भी प्रेरित होती लेकिन अभी प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों के संवाद से जो भी सर्वसम्मति उभरेगी या जो भी राय केंद्र सरकार प्रकट करेगी, उसकी आतुरता से प्रतीक्षा सभी को है।
लेकिन पिछले 48 दिनों की तालाबंदी ने यह सिद्ध कर दिया है कि कोरोना जितना खतरनाक है, उससे भी ज्यादा खतरनाक हमारी तालाबंदी हो सकती है। यह मैं पहले भी आंकड़ों के आधार पर सिद्ध कर चुका हूं कि अन्य देशों की तुलना में कोरोना का कोप भारत में बहुत कम है लेकिन हमने खुद को जरुरत से ज्यादा डरा लिया है। इस डर के मारे कृषि-मंडियां, कारखाने, दुकानें और दफ्तर बंद हो गए हैं। बेरोजगारी और भुखमरी बढ़ गई है। सैकड़ों लोग घर-वापसी में मर रहे हैं। देश की अर्थ-व्यवस्था लंगड़ा गई है। इसलिए जरुरी यह है कि तालाबंदी को तुरंत उठा लिया जाए लेकिन कोरोना के विरुद्ध जितनी भी सावधानियां जरुरी हैं, उन्हें लागू किया जाए। इसका नतीजा यह भी हो सकता है कि कोरोना का जबर्दस्त हमला हो जाए। उस हमले से मुकाबले की तैयारी पहले से की जाए। लाखों लोगों के इलाज का इंतजाम, गांवों और शहरों में, पहले से हो। भारत उसी तरह खुल सकता है, जैसे वियतनाम, द.कोरिया और स्वीडन खुले हुए हैं। भारत सरकार इस तर्क को समझ रही है। इसीलिए रेलें चलाने की घोषणा हो गई है। तालाबंदी को उठा लेना एक खतरनाक जुआ भी सिद्ध हो सकता है लेकिन उसका चलाए रखना तो आर्थिक प्रलय को आमंत्रण देना है। तालाबंदी उठाने के बाद यदि हताहतों की संख्या इटली या अमेरिका की तरह आसमान छूने लगे तो केंद्र सरकार फिर तालाबंदी का छाता तान सकती है। उसे कौन रोक सकता है ? लेकिन यह साहसिक कदम उठाने के पहले केंद्र को राज्यों की सहमति जरुर लेनी चाहिए और उन्हें फैसलों की पूरी छूट देनी चाहिए।
डा.वेदप्रताप वैदिक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)