अब बजट से मरहम की आस

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महामारी और उसकी वजह से हुए लॉकडाउन का एक अजीब नतीजा हुआ है कि इन 11 महीनों में भारत के अमीर, बहुत अमीर हो गए हैं और लगभग सभी गरीब और गरीब हो गए हैं। शुरुआत में हमने इस पर ध्यान नहीं दिया, लेकिन जैसे-जैसे समय बीता, यह स्पष्ट होता गया। आज स्टॉक मार्केट वास्तविक आर्थिक स्थिति का संकेतक नहीं रह गया। बल्कि सेंसेक्स का 50 हजार को छूना स्पष्ट संकेत है कि अमीर और अमीर हुए हैं।

नहीं, मैं वैक्सीन बनाने वालों और उनकी बात नहीं कर रहा हूं, जो विवादों में उलझे हैं। उन खुशकिस्मतों की भी नहीं, जिन्होंने मास्क, सैनिटाइजर, ग्लव्स आदि बनाकर कमाई की है। मैं लाखों विटामिन कैप्सूल या इम्यूनिटी बढ़ाने का दावा करने वाले हर्बल टॉनिक बेचने वालों की बात भी नहीं कर रहा हूं। बाजार में और भी कई आ रहे हैं, जिनमें 99.9% वायरस मारने वाले माउथवॉश भी हैं। मुझे लगता है कि 0.1% को छोड़ देते हैं, ताकि उन लोगों की स्थिति समझा सकें, जिन्हें इनके इस्तेमाल के बावजूद कोविड-19 हो जाता है।

मैं बाबा रामदेव के पतंजलि की भी बात नहीं कर रहा हूं, जो वायरस के इलाज का दावा करते हुए कोरोनिल जैसे उत्पाद लाई थी, लेकिन आयुष मंत्रालय की रोक के बाद उसे पीछे हटना पड़ा। या उन धोखेबाजों की बात भी नहीं कर रहा, जो ऐसे संकट के समय गरीबों को नकली या इस्तेमाल किए हुए उत्पाद बेचने लगते हैं।

हर सकंट एक अवसर है। कुछ के लिए जल्द पैसा बनाने का अवसर है। होशियार लोग बाजार में कमी को पूरा कर ऐसा करते हैं। बाकी डर का दोहन करते हैं। इनके शिकार गरीब होते हैं, जिनके पास हैसियत के अनुसार खरीदने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। मैंने सड़कों पर बच्चों को इस्तेमाल किए हुए मास्क उठाकर पहनते देखा है क्योंकि शहर में कानून ने मास्क पहनना अनिवार्य किया है। कुछ ऐसे भी हैं जिन्होंने इस अवसर का इस्तेमाल लोगों की जरूरत के सामान की जमाखोरी में किया, ताकि वे नकली कमी पैदा कर लाभ उठा सकें।

मेरे पास हाल ही में कोयम्बटूर की एक सभा का वीडियो आया, जिसमें लघु और सूक्ष्म निर्माताओं के संघ राहुल गांधी से अपनी स्थिति की शिकायत कर रहे थे। एक संघ के प्रमुख ने बताया कि क्षेत्र के 85% उद्योग बंद हो गए, लाखों नौकरियां चली गई हैं। लेकिन उनका दर्द न राज्य सरकार सुन रही है, न केंद्र।

जहां भी जाता हूं, यही सुनता हूं। बड़े लोग यह कहने में व्यस्त हैं कि सरकार ने महामारी को कितने अच्छे से संभाला। दूसरी तरफ, छोटे लोग निराश हैं। उन्हें बचने की उम्मीद नहीं दिख रही। उनके बारे में कोई बात नहीं कर रहा। मीडिया चुप है। विपक्ष तो 6 वर्षों से कोमा में है।

कोई भी इस साधारण सवाल का जवाब जानना नहीं चाहता। अमीर, इतने अमीर कैसे बन गए, जबकि बाकी 99% लोग अब भी पीड़ित हैं? ज्यादातर बिजनेस बंद ही हैं। हां, कुछ कारखाने काम कर रहे हैं लेकिन आधी क्षमता पर। गुमटी वाले गायब हैं। लाखों की नौकरी चली गई है और वे गांव में वापस बुलाए जाने का इंतजार कर रहे हैं। हजारों मध्यमवर्गीय लोगों ने किस्तें नहीं भरी हैं। बैंक एनपीए की शिकायत कर रहे हैं। बहुत से लोग बैंक में जमापूंजी को लेकर चिंतित हैं। रोज हजारों क्रेडिट कार्ड रद्द हो रहे हैं। जिन्होंने कर्जा लिया है, वे चिंतित हैं कि उनके घर या ऑफिस कुर्क न हो जाएं। बाकी गुस्से से भरे कर्जदाओं को टालने में लगे हैं। किराये नहीं दिए जा रहे। खबरें हैं कि चीनी कर्जदाता इसमें अवसर देख रहे हैं, असुरक्षित लोगों को भारी दरों पर कर्ज दे रहे हैं।

ऑक्सफैम ने हाल ही में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम को अपनी वार्षिक रिपोर्ट सौंपी है। यह ‘असमानता के वायरस’ की बात करती है कि कैसे यह कोरोना वायरस से भी घातक है। यह बताती है कि हमारे अरबपतियों की दौलत लॉकडाउन के दौरान 35% तक बढ़ गई, जबकि 84% भारतीय परिवारों को आय का नुकसान हुआ और केवल अप्रैल 2020 में ही हर घंटे 1.7 लाख लोगों की नौकरी गई। यह बताती है कि पहले लॉकडाउन के बाद से हमारे अरबपतियों ने इतनी कमाई कर ली है कि वे हमारे 13.8 करोड़ गरीबों को 94,045 रुपए प्रतिव्यक्ति तक दे सकते हैं।

नासकॉम-जिनोव की रिपोर्ट के मुताबिक, जिस साल को संभवत: सबसे बुरा साल माना जा रहा है, उसमें भारत ने 12 यूनिकॉर्न कंपनियों का जन्म देखा। हर यूनिकॉर्न की कीमत 1 अरब डॉलर या उससे ज्यादा है। 2021 में ऐसी 50 कंपनियां और हो सकती हैं।

अत्यधिक दौलत और कमरतोड़ गरीबी हमेशा एक साथ अस्तित्व में रही हैं। लेकिन महामारी ने इन दो छोरों के बीच दूरी और बढ़ा दी है। तीन दिन बाद, श्रीमति सीतारमण के पास हाशिये पर खड़े डगमगाते लोगों की जिंदगी आसान बनाने का मौका है। क्या वे ऐसा करेंगी? या हमेशा की तरह सुधरती अर्थव्यवस्था की बात करती रहेंगी?

प्रीतीश नंदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व फिल्म निर्माता हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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