जेल नहीं, बेल’ की धारणा

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आईपीसी के जानकार किसी क्राइम रिपोर्टर से पूछिए कि पुलिसवाले अपराध नियंत्रण के किस तरीके पर आपस में बात करते हैं, जिसमें उन्हें महारत हासिल हो गई है। इस तरीके को अपराध की ‘बर्किंग’ कहते हैं, क्योंकि अपराध पर काबू पाने के पुराने तरीके, पुलिसिया कार्रवाई, मुकदमा आदि से मिलने वाले नतीजे अनिश्चित ही होते हैं। जितना कम दर्ज किया जाए, उतना अच्छा है।

अपराध काबू में करने का यह सबसे सुरक्षित तरीका है। इसी तरह, हमारी स्वाधीनता की सुरक्षा करना अगर न्यायपालिका की बड़ी जिम्मेदारी है, तो गलत तरीके से गिरफ्तार किया गया व्यक्ति अदालत से न्याय पाने के लिए ‘हैबियस कॉर्पस’ यानी बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका पर भरोसा कर सकता है। और अगर उसे यह मौका नहीं दिया जाता तो यह व्यवस्था को उतना ही दूषित करता है, जितना अपराध की गिनती न करके उसके कम होने का पुलिस द्वारा दावा करना।

आज अगर आप एक ऐसे शख्स हैं, जिसे शासक वर्ग नापसंद करता है, तो वह आसानी से ऐसे पुलिस अधिकारी खोज सकता है, जो आपके ऊपर IPC की गंभीर धाराओं के तहत मामला दायर कर सकता है, भले ही उनके पास लेशमात्र सबूत भी न हो। फिर भी आप यह उम्मीद कर सकते हैं कि वे आपको मजिस्ट्रेट के सामने तो जरूर पेश करेंगे, जो आसानी से पकड़ लेगा कि सबूत तो हैं ही नहीं। और फिर उसका आदेश दिवंगत न्यायमूर्ति वीआर कृष्ण अय्यर के इस कथन के आधार पर ही होगा कि ‘नियम तो बेल देना ही है, जेल भेजना नहीं।’

लेकिन सच तो यह है कि इस धारणा का लगातार कत्ल हो रहा है। हाल में ऐसा तीन बार हुआ। मुनव्वर फारूकी, नौदीप कौर व दिशा रवि के मामले देख लीजिए। पहले को इस आरोप में जेल भेज दिया कि वह ‘निस्संदेह’ आपत्तिजनक चुटकुले ‘सुनाता’। दूसरा मामला नौदीप का है, जिस पर हत्या की कोशिश का आरोप लगा। तीसरा मामला है, देशद्रोह का। तीनों में प्रथम मजिस्ट्रेट ने ऐसे काम किया, मानो सिद्धांत यह है कि नियम तो जेल भेजने का है, जमानत तो मेरे ओहदे के दायरे से बाहर है।

नौदीप कौर को पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने इस आधार पर जमानत दी कि उसे धारा 307 लगाए जाने का कोई वास्तविक कारण नहीं दिखा। इससे पहले नौदीप ने जिले में जिन दो अदालतों का दरवाजा खटखटाया, उन्हें यह समझ नहीं आया। इसलिए उसे बेवजह 45 दिन जेल में रहना पड़ा। फारूकी को जमानत देने से तीन बार मना कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने उसे मुक्ति दी। फिर भी उसे जेल में 36 दिन गुजारने पड़े।

दिशा रवि की जमानत के आदेश में जज धर्मेंद्र राणा ने जो कहा उसका स्वागत है। लेकिन क्रूर सच्चाई यही है कि एक नागरिक 10 दिन स्वतंत्रता से वंचित रही। दिल्ली पुलिस का दावा है कि उसकी गिरफ्तारी में कानूनी प्रक्रिया का पालन किया गया। अब इसे दिशा की परिस्थिति के नजरिए से देखें। जरा सोचिए कि इस मजिस्ट्रेट ने उसे जमानत दे दी होती? दूर शहर की लड़की यहां अपनी जमानत के लिए किसी को कैसे खड़ा करती?

अमेजन प्राइम वीडियो की इंडिया कंटेंट चीफ अपर्णा पुरोहित सीरीज ‘तांडव’ के मामले में कई FIR का सामना कर रही हैं। इलाहबाद हाईकोर्ट जज ने इस मामले में दिल दहलाने वाली टिप्पणी की कि ‘अर्जी देने वाली के काम बहुसंख्यक नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, उसे अग्रिम जमानत देकर, उसके जीवन तथा स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों की रक्षा नहीं की जा सकती।’ यह सब लोकतांत्रिक, संवैधानिक गणतंत्र में सिखा रहे हैं, जहां पहला सिद्धांत यही है कि हर व्यक्ति के अधिकार सर्वोपरि हैं।

संभव है, अपर्णा को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिल जाए। यह न्याय भी होगा और उसका उपहास भी। क्योंकि, 2014 के अर्णेश कुमार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने उन मामलों में गिरफ्तारी पर सख्त कसौटी तय की थी जिनमें 7 साल से कम की जेल की सजा का प्रावधान है। अर्णेश पर दहेज उत्पीड़न की धारा लगी थी। वे सुप्रीम कोर्ट पहुंचे, जिसने यह व्यवस्था दी कि जिस मामले में सात साल की जेल से कम सजा का प्रावधान हो उसे गिरफ्तार करने के लिए पुलिस को आश्वस्त होना पड़ेगा कि गिरफ्तारी दूसरा अपराध रोकने, सबूत नष्ट होने से बचाने या गवाहों को दबाव से बचाने के लिए की जा रही है।

इसे उपहास ही मानेंगे, क्योंकि न्याय से इस तरह वंचित अधिकतर लोगों के पास ऊंची अदालत तक पहुंचने के साधन नहीं होंगे। वे पहुंच भी पाए तो जेल में पहले ही कई हफ्ते बिता चुके होंगे। वास्तव में, अदालत अगर अर्णेश कुमार के मामले में बनाई गई कसौटी पर ज़ोर भी दे तो पुलिस-राजनीति मिलीभगत इसकी परवाह नहीं करेगी। जिन्हें वे जेल में देखना चाहते हैं, उनके लिए पसंदीदा हथियार है देशद्रोह का आरोप, जिसके लिए उम्रकैद की सजा मुकर्रर है।

शेखर गुप्ता
(लेखक एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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