अब सांस्कृतिक भिन्नता पर हीनता नहीं

0
551

हाल तक ऐसा दौर रहा, जब भारत के राजनीतिक और प्रशासनिक वर्ग को गंभीरता से नहीं लिया जाता था। वे भारतीय सभ्यता की विरासत तथा सांस्कृतिक जड़ों से भी अलग-थलग रहा करते थे। आधिकारिक बैठकें सत्ता के गलियारों तक सीमित रहती थीं और खानपान महंगे होटलों की रसोई के स्टैंडर्ड मेन्यू तक सिमटा रहता था। भारत ने खुद ही अपने दरवाजे बंद कर लिए थे। वह बदलाव के लिए कदम नहीं उठाता था और अपनी अलग पहचान नहीं बनाता था। भारत जैसे विविध भाषाओं, खानपान, संस्कृति, वेशभूषा और धर्मों वाले देश में आधुनिक लगने और राजनीतिक रूप से सही दिखने के लिए सभ्यता के सामान्य सूत्रों से किनारा कर लिया गया था। अपनी पहचान के बारे में आत्मनिंदा और क्षमा याचना से भरी बातों के चलते भारत का वास्तविक चेहरा ही छिप गया था।

सांप्रदायिक कहलाने का डर यह कशमकश से भरा एक ऐसा परिदृश्य था जहां बहुसंख्यक लोगों को छोटा माना जाता था। ‘अनंत पाप’ के लिए पश्चाताप करना उनके लिए मानक बन गया था, अन्यथा उन्हें ‘सांप्रदायिक’ करार दे दिया जाता था। इस सांस्कृतिक स्थिति ने राष्ट्र के अभिजात (इलीट) वर्ग को अत्यधिक प्रभावित किया और यह वर्ग भारत की इच्छाओं से पूरी तरह विमुख हो गया। ऐसी ताकतें, जो आपके गौरव और पहचान के प्रतीकों को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रही हैं, क्या उनसे खुद को अलग करना उचित नहीं होगा? नतीजा यह हुआ कि चाहे यह भाषा, संस्कृति, संगीत, कला या अपने स्वर ही क्यों न हों- उनकी अभिव्यक्ति की स्वीकार्यता रसातल में पहुंच गई थी।

विडंबना यह है कि भारत से इतर दुनिया अपनी मूल पहचान तथा उसके मूल तत्वों से जुड़ी रही है। प्राचीन और प्रसिद्ध भारतवर्ष अभी तक हमें अपनी मौजूदा भौगोलिक सीमाओं के भीतर जीवन जीने के एक तरीके, एक सभ्यता और सांस्कृतिक पहचानों की याद दिलाता है। असली भारत के बहिष्कार का का यही वह आईना है जिसे नरेंद्र मोदी की सांस्कृतिक पहचान की शांत किंतु दृढ़ अभिव्यक्ति ने तोड़ दिया है। एक ऐसा नेता भारत के हृदय से उभरा है जो अपनी सांस्कृतिक जड़ों को लेकर बहुत स्पष्ट है और उन्हें खुले तौर पर प्रदर्शित भी करता है। यहां हम एक ऐसा राजनेता देखते हैं जो अपनी पारंपरिक भारतीय पोशाक में दिखाई देने में संकोच नहीं करता, चाहे भारत में हो या विदेश में। यह नेता तमिलनाडु के परिधान वेष्ठी (धोती) में भी उतना ही सहज है जितना पूर्वोत्तर की टोपी या फिर नौकरशाहों के ‘बंद गला’ में, जिसने हमारी राजनीति और कूटनीति का लंबे समय तक प्रतिनिधित्व किया है।

नरेंद्र मोदी ने भारत की वैविध्यपूर्ण संस्कृति के लिए बार-बार अपना समर्थन दिखाया है, चाहे वह नृत्य, कला, संगीत, पोशाक और खान-पान की आदत आदि जिस भी रूप में हो। वे सही मायनों में इसके सर्वश्रेष्ठ सांस्कृतिक राजदूत रहे हैं। हमें याद आता है कि कैसे उन्होंने ‘हाउडी मोदी’ कार्यक्रम में कई भाषाओं में खुद को अभिव्यक्त करके भारत की भाषाई विविधता दिखाई। भारत की अभिव्यक्ति का यही वह उच्चारण है जो हमें बताता है कि नरेंद्र मोदी का गर्व खुद को श्रेष्ठ महसूस करने को लेकर नहीं है, बल्कि यह स्वयं में सहज होने से उपजता है। यह बात भारतीय लोगों तक भी पहुंच गई है और वे अपनी सांस्कृतिक भिन्नता को लेकर हीनता का अनुभव नहीं करते।

‘अंतरराष्ट्रीय योग दिवस’ भारत की वास्तविक सॉफ्ट पावर को दुनिया के सामने प्रस्तुत करने में लगी रचनात्मकता का प्रमाण है। नेताओं को नई दिल्ली के अपने दायरों से बाहर निकालकर अहमदाबाद, वाराणसी, चंडीगढ़ या मामल्लपुरम जैसी जगहों पर ले जाकर नरेंद्र मोदी ने दिखाया है कि यह नया भारत दरअसल पुराने और नए दोनों के साथ सहज है और अपने सभ्यतागत मूल्यों और विश्वासों से संचालित है। मां गंगा को अर्पित भावांजलि में केवल मोदी के शब्द नहीं हैं। ये शब्द तो दुनिया भर में फैले उन करोड़ों लोगों के विश्वास का प्रतिनिधित्व करते हैं जो इस भावना को साझा करते हैं। चाहे केदारनाथ की एक गुफा में बैठकर शिव का ध्यान करना हो या उन्मुक्त ढंग से भारतीय धर्मग्रंथों से विचार उद्धृत करना हो, मोदी एक ऐसी सभ्यतागत पहचान को जागृत करने का प्रतीक हैं जिसे जबरन नींद में धकेल दिया गया था। चाहे ढाका में ढाकेश्वरी मंदिर के दर्शन करना हो या काठमांडू में भगवान पशुपतिनाथ के, या फिर अबू धाबी में पहले मंदिर का उद्घाटन करना, भारत का अपनी जड़ों से जुड़ना अब उत्साह से छलकती हुई क्रिया बन गया है और यह ऐसा क्षण है जिसके लिए लोगों ने बहुत लंबा इंतजार किया है।

संवाद और विमर्श के उदाहरण के रूप में आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच के महान शास्त्रार्थ से दिए गए नरेंद्र मोदी के संदर्भ दरअसल एक ऐसी सभ्यता को लेकर एकदम सही समझ प्रस्तुत करते हैं जो ज्ञान को पूजती है, परस्पर विश्वास के जरिए विजय प्राप्त करने में यकीन रखती है और परिस्थिति व पद की परवाह किए बगैर सम्मान की गारंटी देती है। मोदी बारीकियों का मूल्य जानते हैं। अपनी संस्कृति और सभ्यता के प्रति उनका प्रेम भाव कभी भी कर्कश या वर्चस्ववादी नहीं होता। यह प्रेम की एक स्वचालित अभिव्यक्ति मात्र है, कोई शक्ति प्रदर्शन नहीं।

असली भारत का जागरण सत्ता के शीर्ष पर नरेंद्र मोदी की मौजूदगी के परिणाम स्वरूप असली भारत का जागरण हो रहा है, जो सत्ता के गलियारों और राजनीतिक रूप से सही होने की अंतःक्रिया में कहीं खो गया था। आज जब दुनिया भारत के विश्वगुरु के दर्जे को वापस पाने के लिए की जा रही नरेंद्र मोदी की पहल को देखती है तो हमें आश्चर्य होता है कि हमारी सभ्यता का यह सरल लेकिन इतना गहरा पहलू सत्ता के गलियारों में बैठे लोगों के लिए इतने लंबे वक्त तक कभी अजेंडे पर लाने लायक भी क्यों नहीं था। शायद, इसके लिए एक सच्चे भारतीय का इंतजार था, जो आए और अपनी संस्कृति को अंगीकार करे।

सोनल मानसिंह
(लेखिका प्रयात नृत्यांगना और सांसद हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here