आंदोलनों से बदले हैं इतिहास

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राएक तरफ भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा किसानों के जरिए बंगाल जीत का सपना देख रहे हैं, हमदर्दी जताने को उनके साथ भोजन कर रहे हैं, दूसरी हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आंदोलित किसानों को किसान नहीं मान रहे हैं, इन्हें आंदोलनजीवी, परजीवी की संज्ञा दे रहे हैं। एक डिबैट के दौरान भाजपा प्रवता भाकियू अध्यक्ष नरेश टिकैत से यह सवाल करके कि इस आंदोलन या चका जाम से क्या प्रभाव पड़ा? उन्हें प्रदर्शन के लिए उकसा रहे हैं। भाजपा की दोहरी नीति का एक उजागर चेहरा यह भी है कि जहां एक ओर वह बंगाल में जीत के लिए किसानों की हमदर्दी चाहती है, वहीं दूसरी ओर सुरक्षा के नाम पर दिल्ली के चारों ओर अंतरराष्ट्रीय स्तर की तारबंदी व कीलबंदी कर दी गई है। इससे संदेश जाता है कि सरकार अपनी ओर से आंदोलित किसानों से कोई बातचीत नहीं चाहती है। जिसको को बात करनी हो तो वह एक कॉल की दूरी पर हैं। पीएम मोदी के इस वतव्य की हकीकत कितनी हैं? इसका आभास इसी बात से हो जाता है कि प्रधानमंत्री आंदोलित किसानों को आंदोलनजीवी और परजीवी का नाम दे रहे हैं। आंदोलन एक ऐसा मार्ग है कि जिसका संविधान हक देता है।

आंदोलन के आगे बड़ी-बड़ी सरकारों को झुकते हुए देखा है। आंदोलन से ही नई राजनीति का आगाज होता है। इसी आंदोलन से नए नेता निकलकर आते हैं, जो राजनीति का नया आयाम स्थापित करते हैं। यदि पूर्व पीएम इंदिरा गांधी के शासन काल में आपातकाल के दौरान हुए आंदोलन में चंद्रशेखर जैसे नेता उभरकर आए जो देश के प्रधानमंत्री तक बने, तो अन्ना हजारे के आंदोलन से अरविंद केजरीवाल जैसा नेता निकले जो दस साल से दिल्ली संभाल रहे है। किसानों के इस आंदोलन ने देश की राजनीति को एक नई दिशा देने की कोशिश की है। लगभग एक दशक पहले मुजफरनगर दंगों से हिंदू-मुसलमानों में जो खाई पैदा हो गई थी। जिसका लाभ भाजपा ने जमकर उठाया। धर्म के नाम पर घृणा की जो राजनीति की जा रही थी वह अब खत्म होती दिख रही है। योंकि जहां भाकियू नेता राकेश टिकैत व नरेश टिकैत के प्रयासों से पश्चिमी उत्तर प्रदेश, जो नफरत की राजनीति का शिकार हो रहा था वह अब उससे आजाद होने का प्रयास कर रहा है। अब किसान जाति-धर्म से ऊपर उठकर आंदोलन चला रहे हैं जिसमें हिंदू-मुसलान, सिख-ईसाई, जैन-बौध आदि धर्मों का कोई स्थान नहीं है। यानी यह भी कहा जा सकता है यह आंदोलन जहां किसान हित में हो रहा है, वहीं यह लोगों को एकता के सूत्र में बांध रहा है।

इस आंदोलन को दमननीति से खत्म करना आसान नहीं है। बल्कि इसकी मांगों को बातचीत के द्वारा ही हल किया जा सकता है। जो सरकार इन्हें किसान नहीं मानती वह उनकी समस्याओं को हल कैसे कर सकती है। विशेषज्ञों की राय है कि यह आंदोलन जितना लंबा चलेगा उतना ही सशत होगा और जनादोलन में परिवर्तित होता चला जाएगा। इस आंदोलन को खत्म करने के लिए भाजपाइयों को आरोप-प्रत्यरोप की राजनीति छोडऩी होगी। सरकार को चाहिए कि वह इन आंदोलित किसानों को टुकड़े-टुकड़े गैंग, खालिस्तानी, पाकिस्तानी नसली और आंदोलनजीवी या परजीवी कहना बंद करके उन मांगों को हल करना होगा, जो किसान चाहते हैं। सरकार को एक बात ध्यान में रखनी होगी कि सरकार जनता से है, जनता सरकार से नहीं है। इसलिए किसानों में विश्वास पैदा करना होगा कि सरकार किसान हितैषी है, जो उनके बारे में सोचती है। उनकी तरकी चाहती है। इन कानूनों को हॉल्ड पर रखकर सरकारी प्रतिनिधि व किसानों की एक समिति का गठन करना चाहिए उसके विचार-विमर्श पर निर्णय लेना चाहिए।

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