साल पूरा होने में अभी तीन महीने हैं। अगले महीने से सरकार एक साल पूरे होने के जश्न की तैयारियों में लगेगी और मंत्रालयों के रिपोर्ट कार्ड जारी होने लगेंगे। ध्यान रहे दिसंबर-जनवरी के महीने में प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी सरकार के कामकाज का विस्तार से आकलन किया है। उन्होंने मंत्रियों के साथ लंबी-लंबी समीक्षा बैठकें कीं और अधिकारियों से भी रिपोर्ट ली। तब माना जा रहा था कि उनको अपने मंत्रिमंडल में फेरबदल करनी है इसलिए उन्होंने समीक्षा की है। हो सकता है कि वह भी एक कारण हो पर उससे ज्यादा यह लग रहा है कि वे खुद भी अपनी सरकार के दूसरे कार्यकाल के कामकाज से बहुत संतुष्ट नहीं हैं। उन्होंने इस बारे में नौकरशाहों को भी अपनी चिंता बताई थी और उनको फटकार भी लगाई थी। सवाल है कि किस वजह से सरकार का दूसरा कार्यकाल विवादों से शुरू हुआ और नौ महीने पहुंचते-पहुंचते सरकार कई मोर्चों पर गंभीर संकट में फंस गई? क्या यह पहले कार्यकाल में हुए कुछ गलत नतीजों का प्रतिफल है क्या दूसरे कार्यकाल में आमतौर पर इसी तरह से सरकारें बेपटरी होती रही हैं, जैसे मनमोहन सिंह की सरकार हुई थी। उसके सामने भी पिछले कार्यकाल के पाप निकल कर आ गए थे।
पहले कार्यकाल में सरकार ने जो उम्मीदें जगाई थीं, उससे प्रभावित होकर लोगों ने कांग्रेस पर भरोसा जताया था और 2004 के मुकाबले ज्यादा वोट और ज्यादा सीटों के साथ 2009 में सरकार बनवाई थी। पर सरकार बनने के एक साल के बाद ही सरकार कई किस्म के विवादों में घिरती चली गई। नरेंद्र मोदी ने भी पहले कार्यकाल में जो उम्मीदें पैदा की थीं उसी की वजह से लोगों ने उन पर ज्यादा भरोसा दिखाया। सबको लग रहा था कि मोदी ने 2022 तक देश में बड़े बदलाव की जो तस्वीर बनवाई है उसमें रंग भरने के लिए जरूरी है कि उनको दूसरी बार जिताया जाए। याद करें पहले कार्यकाल में मोदी का फोकस किन बातों पर था। उन्होंने ‘न खाऊंगा न खाने दूंगा’ का नारा दिया था। लोगों को उम्मीद बंधी थी कि देश में ईमानदारी का नया दौर आने वाला है। उन्होंने एक सौ के करीब योजनाएं शुरू की थीं। मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्टार्टअप इंडिया, स्टैंडअप इंडिया, स्वच्छ भारत, बेटी पढ़ाओ-बेटी बचाओ, किसानों की आय दोगुनी करने का वादा और 2022 तक सबको आवास देने का वादा किया था। हालांकि उस समय भी अखलाक की हत्या और मॉब लिंचिंग के दूसरे मामले हुए थे। पर मोटे तौर पर सरकार के प्रति सदभाव था और लोगों की उम्मीदें थीं।
अब लगभग छह साल के बाद उम्मीदें टूटने लगी हैं। इसका कारण यह है कि सरकार का अपना फोकस उन वादों पर नहीं है, जो पहले कार्यकाल में किए गए थे। अब कहीं उन योजनाओं की चर्चा नहीं होती है। प्रधानमंत्री ने मेक इन इंडिया का नारा दिया था, जिसको बदल कर अब उनके ही अधिकारी असेंबल इन इंडिया कहने लगे हैं। यानी भारत में बनना कुछ नहीं है। चीन से कंपोनेंट खरीद कर लाना है और असेंबल करके बेचना है। तमाम छोटी फैक्टरियां, घरेलू और कुटीर उद्योग बंद होने लगे। लोग मैन्युफैचर्स से सप्लायर बनने लगे। वे अपनी फैक्टरियां बंद करके चीन से माल ला रहे हैं और पैकेजिंग करके बेच रहे हैं। तभी चीन में कोरोना वायरस का संकट आया तो भारत में तमाम कारोबारियों की सांस फूल रही है। दूसरे कार्यकाल का सबसे बड़ा संकट प्रधानमंत्री की अपनी छवि का है। हालांकि बहुत कायदे से तमाम बड़े फैसले केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को आगे करके कराए गए। जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने का फैसला हो या संशोधित नागरिकता कानून का मामला हो, इसे शाह ने ही अंजाम दिया। उन्होंने ही संसद में इसे पेश किया और पास कराया। इसके लिए प्रधानमंत्री मोदी ने उनकी तारीफ भी की।
पर दुनिया में यही मैसेज गया कि नरेंद्र मोदी की सरकार अपने देश में अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाना चाह रही है। सीएए के विरोध में देश भर में हो रहा आंदोलन हो या दिल्ली का दंगा हो, विश्व मीडिया ने इसे बहुत विस्तार से कवर किया है। हो सकता है कि घरेलू राजनीति में इसका फायदा हो पर विश्व बिरादरी में इसका नकारात्मक असर है। तभी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की यात्रा के बावजूद अमेरिकी प्रशासन और वहां की कांग्रेस में भारत की धार्मिक आजादी का मुद्दा पहले से ज्यादा उठने लगा है। पहले कार्यकाल में मोदी ने पाकिस्तान जाकर एक मैसेज दिया था ऐसा लगा था कि वे पाकिस्तान के साथ बात करके कश्मीर समस्या को हमेशा के लिए हल करना चाह रहे हैं। इसी तरह उन्होंने आर्थिक मोर्चे पर पर्याप्त ध्यान दिया था। कूटनीति और अर्थनीति दोनों को बेहतर करने की उम्मीद उनसे थी। पर इन दोनों मामलों में उलटा हुआ है। अब पाकिस्तान के साथ आर-पार की जंग की बात है तो आर्थिकी पूरी तरह से पटरी से उतरी है।
नवंबर 2016 में की गई नोटबंदी और जुलाई 2017 में लागू किया गया जीएसटी अब असर दिखा रहा है। पिछले ही दिनों भाजपा के सांसद सुब्रह्मण्यण स्वामी ने जीएसटी को 21वीं सदी का सबसे बड़ा पागलपन बताया। कूटनीति और अर्थनीति दोनों पर पिटने का नतीजा यह हुआ है कि सरकार इन दोनों को भाग्य के भरोसे छोड़ा है और पार्टी के घोषणापत्र को निकाल कर उसमें लिखी उन बातों को दोहराना शुरू किया है, जिनके सहारे वोट का ध्रुवीकरण हो सकता हो। पार्टियों को सरकार में आने पर घोषणापत्र में किया वादा पूरा करना चाहिए पर यह भी ध्यान रहे सरकार और पार्टी दोनों का एजेंडा अलग-अलग हो सकता है। अगर सरकार सिर्फ पार्टी के एजेंडे को पूरा करने में लग गई देश के सामने मुश्किल खड़ी हो सकती है। ऐसा ही कुछ नरेंद्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल में होता लग रहा है। सरकार का एजेंडा पीछे हो गया है और पार्टी का एजेंडा आगे हो गया है।
सुशांत कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)