किसान आंदोलन को लेकर मीडिया की सोच बायस है। खबरें किसी खास के लिए चलाई जाती हैं। दिखाई जाती हैं। यानी मीडिया अपनी डगर को यहां भी छोड़ता नजर आ रहा है। अगर राकेश टिकैत नहीं रोते तो शायद ही किसान आंदोलन को कवरेज मिलता। यानी रोना खास है और आंदोलन गौण। देख लीजिए- हाल ही में सेबी ने एक कारोबारी चैनल के लोकप्रिय एंकर को पेशागत बेईमानी के लिए जिमेदार पाया है। पूरी पड़ताल के बाद पता चला कि इस एंकर ने पत्रकारिता की आड़ में अपने धंधे का विस्तार किया और शेयरों की खरीद-फरोत के जरिये करोड़ों रुपये कमाए। अब ये रुपये इस एंकर को लौटाने होंगे। सेबी ने एंकर और उसके परिवार के दो सदस्यों पर शेयर व्यापार की वित्तीय बंदिशें भी लगा दी हैं। त्वरित कार्रवाई करते हुए चैनल प्रबंधन ने एंकर को नौकरी से निकाल दिया है। निश्चित रूप से इस कार्रवाई का स्वागत किया जाना चाहिए। यह मामला जांच की मांग करता है क्योंकि भारतीय पत्रकारिता के तमाम रूपों में इस नेक व्यवसाय की आड़ में ऐसी ढेरों कलंक कथाएं बिखरी पड़ी हैं।
भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में अपने किस्म का यह अनूठा मामला सा लगता है, मगर तमाम कारोबारी चैनलों और समाचारपत्रों में व्यापार डेस्क पर काम करने वाले पत्रकारों-संपादकों के लिए इस खबर पर चौंकने जैसी कोई नई जानकारी नहीं है। बिजनेस कवर करने वाले अधिकांश पत्रकारों की प्रतिक्रिया यही है कि इसमें नया क्या है? इस प्रोफेशन में तो ऐसा होता है अथवा वर्षों से हो रहा है। यानी शेयर की सूचना होने और उसके आधार पर खरीदने-बेचने वाली प्रक्रिया भले ही न अपनाई जाए, मगर यह भी सच है कि बिजनेस कवर करने वाले तमाम पत्रकारों के पास वेतन के अतिरिक्त कमाई करने के अनेक रास्ते होते हैं। वे अपनी पत्रकारिता का इस्तेमाल अपने बैंक बैलेंस को गुब्बारे की तरह फुलाने में करते हैं। इसे एक तरह से छल की श्रेणी में रखा जाना चहिए। सेबी जैसी संस्था ने शुचिता बनाए रखने के लिए झटपट फ़ैसला लिया, किन्तु पत्रकारिता का सहारा लेकर अनेक क्षेत्रों में अभी भी यह धड़ल्ले से चल रहा है।
व्यक्तिगत मुनाफे को न देखें तो टीआरपी घोटाला भी इसी प्रकार की कालिख कहानी है। वह संस्थान की ओर से प्रोत्साहित करने वाली साजि़श है। पत्रकारिता में इस प्रवृति का प्रवेश दशकों पहले ही हो गया था । तब समाचार पत्र की अन्य डेस्क के पत्रकार बिजनेस डेस्क के संवाददाताओं/संपादकों की तरफ़ बड़ी ईष्र्या भरी नजरों से देखा करते थे। लगभग हर रिपोर्टर कारोबारी रिपोर्टिंग की बहती गंगा में हाथ धोना चाहता था। जब पत्रकारों का औसत वेतन हजार रुपये भी नहीं होता था तो वाणिज्य, खेल, सिनेमा और महानगरों के सिटी डेस्क पर काम करने वाले तमाम लोग महीने भर का वेतन यूं ही कमा लेते थे। कोई मिट्टी मोल जमीन खरीद लेता तो कोई सोना-चांदी। किसी को बिना मूल्य चुकाए फ्लैट की चाबी मिल जाती तो कोई महंगी कार का मालिक बन जाता था। इन प्रपंचों ने भी पत्रकारों की साख को बहुत धक्का पहुंचाया है। क्या पेशे की आड़ में चल रहा गोरखधंधा कभी रुकेगा? लगता तो नहीं है हो सकता है कि कोई चमत्कार हो जाए।