मनुष्य को बहुत कुछ अनचाहा करना पड़ता है

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हिमालय की ऊंचाई नापने का पहला प्रयास 1856 में किया गया। दूसरा प्रयास नेहरू शासनकाल में 1954 में किया गया। तीसरा प्रयास 2020 में किया गया है। हिमालय की ऊंचाई लगभग 29 हजार फुट है। यह घटती-बढ़ती रही है। नए आकलन के अनुसार कुछ सेंटीमीटर बढ़ी है। इसी तरह समुद्र तल की गहराई भी मापी गई है। इन सब गणनाओं में विज्ञान की नई खोज का प्रयोग किया गया है।

एडमंड हिलेरी और तेन्ज़िंग नॉरगे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने 1953 में हिमालय की सबसे ऊंची जगह पर पैर रखे थे। ताजा प्रयास एक भारतीय महिला ने किया है। यह उसका साहस है कि अरसे पहले एक दुर्घटना में उसका पैर कट गया था। मानव निर्मित पैर उसने धारण किया। ‘नाचे मयूरी’ नामक फिल्म में जयपुर फुट पहने एक कलाकार ने शास्त्रीय नृत्य किया था। आर. के. नैयर ने इसी कलाकार के साथ एक फिल्म भी बनाई थी।

प्रकाश मेहरा ने अक्षय खन्ना को ‘हिमालय पुत्र’ नामक फिल्म में प्रस्तुत किया था। अक्षय खन्ना ने श्रीदेवी के साथ ‘मॉम’ और फिर ऋषिकपूर की ‘आ अब लौट चलें’ में अभिनय किया था। वे ज्यादा लोगों से मिलते नहीं हैं। उन्हें एकांत पसंद है और वे अपनी निजता की रक्षा बड़े जतन से करते हैं। बहरहाल विज्ञान निरंतर विकास कर रहा है और प्रकृति के रहस्य उजागर होते जा रहे हैं। इसके साथ ही मनुष्य पहले से अधिक रहस्यमय होता जा रहा है।

मनुष्य का कद पहाड़ों की ऊंचाई और समुद्र की गहराई के आकलनों से अलग बहुत निर्णायक और सही नापा जाता है। 7 फुट तक मनुष्य देखे गए हैं परंतु बौनों की संख्या भी कम नहीं है। बांग्ला भाषा में रचे उपन्यास ‘चौरंगी’ में एक पांच सितारा होटल में कैबरे डांसर के साथ एक बौना भी तमाशे का हिस्सा है। वह कैबरे डांसर के साथ डांस के तमाम एक्ट करता है। कभी उसके कंधे पर बैठ जाता है। उसके ये करतब पसंद किए जाते हैं।

उपन्यास में यह स्पष्ट किया गया है कि अपने आइटम के लिए अभद्र हरकत करने वाले यह दो लोग सगे भाई-बहन हैं परंतु तमाशे की जरूरत है कि वह अभद्र कवायदें दिखाएं। पापी पेट की खातिर मनुष्य को बहुत कुछ अनचाहा करना पड़ता है। वैचारिक संकीर्णता मनुष्य की भूख से भी अधिक नियंत्रण कर सकती है।

गहरे समुद्र में भी मनुष्य ऑक्सीजन सिलेंडर साथ रख कर तल तक पहुंच जाते हैं। बर्फ से घिरे पहाड़ों पर मनुष्य मर जाए तो उसकी मृत देह दशकों तक जस की तस रह सकती है। यह संभव है कि कोई भटकती आत्मा उस शरीर को धारण कर ले और उसके द्वारा किए गए अपराध भी मरे हुए मनुष्य के खाते में जमा हो सकते हैं और उसे खोजने की प्रक्रिया भी प्रारंभ हो जाती है।

फिल्म ‘शायद’ में जज की भूमिका अभिनीत करने वाले का कद छोटा था। अत: उसकी कुर्सी पर कानून की मोटी किताबें रखी गईं। इस तरह फिल्म में अभिनय करने वाला सर्वोच्च कानून पर विराजमान हो गया। आजकल कुछ अदालती फैसले बड़े साहसी हैं और कुछ में दबाव बनाकर सत्ता का प्रचार करने वाला छोड़ दिया जाता है। सभी चीजें आम आदमी की अपनी सोच पर निर्भर करती हैं।

दर्द की पतली गली से निकलना आसान: राज कपूर की मृत्यु को 32 वर्ष हो चुके हैं और शैलेंद्र को गुजरे आधी सदी हो चुकी है। यह दोनों सृजन सहयोगी मर कर भी बहुत याद आते हैं। फिल्म गीत-संगीत के बाजार पर एक कंपनी का एकाधिकार है और निर्माता को भारी अग्रिम राशि देकर उन्हें कंपनी के संगीत बैंक से ही गीत लेने का वचन पत्र लेना होता है। देश के हर क्षेत्र में कारपोरेट कंपनियों का एकाधिकार हो रहा है। शैलेंद्र के गैर फि़ल्मी गीतों का एक संकलन 56 के नाम से 1956 में जारी हुआ था। उन गीतों के आधार पर शैलेंद्र याद नहीं किए जा सकते परंतु फिल्मी गानों में गीतात्मकता है। राजनैतिक स्वतंत्रता के कुछ वर्ष पश्चात ही अमिया चक्रवर्ती की फिल्म ‘सीमा’ के लिए उन्होंने गीत लिखे। शैलेंद्र ने राज कपूर की ‘बरसात’ के लिए पहले दो गीत लिखे। फिल्म ‘आवारा’ का उनका गीत ‘आवारा हूं क्या गर्दिश में हूं आसमान का तारा हूं।’ भारत रूस व खाड़ी देशों में खूब लोकप्रिय हुआ। विदेशी भी हिंदी गीत गाने लगे। ‘आवारा’ के गीत लेखन में शैलेंद्र ने महसूस किया कि गीतों से ही वे अपने जीवन का उद्देश्य पा सकते हैं।

अवाम का दुख-दर्द, सपने व भय अभिव्यक्त कर सकते हैं यूं शैलेंद्र ने खुद को समझना शुरू किया। शंकर-जयकिशन व शैलेंद्र तथा हसरत की टीम 21 वर्ष तक छाई रही। शैलेंद्र ने अन्य संगीतकारों के साथ भी काम किया। पंडित रविशंकर की बनाई धुन पर फिल्म ‘अनुराधा’ के लिए गीत लिखा। उन्होंने सचिन देव बर्मन के साथ काम किया। विजय आनंद की फिल्म ‘गाइड’ में गीत लिखा, ‘तोड़ के बंधन बांधे पायल, कोई न रोको दिल की उड़ान को… आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है।’ ‘गाइड’ के गीत के लिए भव्य सैट लगाए गए। सचिन देव बर्मन ने धुन बना ली परंतु शैलेंद्र बीमार थे। अत: विजय आनंद ने 2 सप्ताह इंतजार किया। फिल्म स्टूडियो में सैट लगाते ही स्टूडियो का किराया देना होता है। संभवत: पहली बार एक गीतकार के लिए निर्माता ने इतना पैसा खर्च किया। शैलेंद्र पंजाब में जन्मे थे परंतु उनके पूर्वज बिहार के थे। शैलेंद्र ने फणीश्वर नाथ रेणु की कथा ‘तीसरी कसम’ पर फिल्म बनाने का निर्णय किया।

दिल्ली में फिल्म के प्रथम प्रदर्शन पर कानूनी रोक लगी थी योंकि शैलेंद्र के रिश्तेदार ने वितरकों से हेराफेरी की थी। राज कपूर ने 80 हजार रुपए वितरक को दिए और मुकेश जी ने भाग-दौड़ कर अदालत से स्टे ऑर्डर निरस्त कराया पर प्रथम प्रदर्शन के समय शैलेंद्र ही नहीं आ पाए। ‘तीसरी कसम’ में अभिनेता राज कपूर का श्रेष्ठतम माना जाता है। कुमार अंबुज का कहना है कि ‘तीसरी कसम’ देखते हुए एक महान फिल्म को देखने का निर्मल आनंद मिलता है व साथ ही अपरिभाषेय दर्द का भी एहसास होता है। देवदास की तरह दर्द की पतली गली से निकलना आसान है परंतु गाड़ीवान अपने कार्य के प्रति समर्पित रहे व हीराबाई भी नौटंकी में अभिनय मार्ग पर ही चले, यह कर्म की प्रतिबद्धता के साथ व्यक्तिगत दर्द से अपने कार्य को प्रभावित नहीं होने देने का महान कार्य है। हम तो शैलेंद्र रचित गीत से प्रार्थना मात्र कर सकते हैं कि, ‘जाने वाले हो सके तो लौट के आना।’

जयप्रकाश चौकसे
(लेखक फिल्म समीक्षक हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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