भारतीय राजनीति में परिवारवाद बड़ी समस्या बनी हुई है। आजादी के बाद से सबसे पहले कांग्रेस परिवारवाद से ग्रसित पार्टी बनी। उसके बाद अस्सी के दशक से समाजवादी लहर के उभार के साथ राजनीति में नए क्षत्रप सामने आए, उस वत लगा जैसे भारतीय राजनीति अपने लक्ष्य की ओर बढ़ेगा और असली जन सरोकार राजनीति के केंद्र में आएंगे। पहले जनता पार्टी और उसके बाद जनता दल के प्रयोग के विफल होने के बाद जल्द ही भ्रम टूट गया। गैर कांग्रेसवाद के नाम पर शुरू समाजवादी राजनीति नबे के दशक आते-आते क्षेत्रीय, जातिवादी के साथ परिवारवाद की धुरी बनती गईं। फिर या था, कांग्रेस की तर्ज पर देश में परिवार केंद्रित राजनीतिक दलों की भरमार हो गई। केवल भाजपा व वामदलों को छोड़कर देश की सभी प्रमुख राष्ट्रीय व क्षेत्रीय पार्टियों परिवार संचालित बनी हुई हैं।
मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी, लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल, मायावती की बसपा, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, फारुक अदुल्ला की नेशनल कांफ्रेंस, महबूबा मुक्ती की पीडीपी, स्टालिन की डीएमके, ओमप्रकाश चौटाला के इनेलो, जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआरसी, के. चंद्रशेखर राव की तेलंगाना राष्ट्र समिति, एचडी देवेगौड़ा के जदएस, प्रकाश सिंह बादल के शिअद, नवीन पटनायक के बीजू जनता दल, जयंत चौधरी के रालोद आदि ऐसी पार्टियां हैं जो परिवार संचालित है। उसी कड़ी में लोजपा भी है। लोकजनशति में बगावत भी परिवार में वर्चस्व को लेकर है। 2019 के लोकसभा चुनाव में बिहार केंद्रित पार्टी लोजपा को राजग गठबंधन की छतरी के नीचे छह सीटें मिली थीं, इनमें से तीन सीटें पासवान परिवार ही ही हैं।
राजनीति के मौसम विज्ञानी कहे जाने वाले दिवंगत नेता राम विलास पासवान ने लालू व नीतीश से अलग होकर लोकजनशति पार्टी बनाई थी। तब से यह पार्टी रामविलास व उनके दो भाई रामचंद्र पासवान व पशुपति पारस की संपत्ति की तरह काम कर रही है। जब तक पासवान जीवित रहे लोजपा के सर्वेसर्वा वो बने रहे, किसी तरह के आंतरिक असंतोष सामने नहीं आए, उनके जाने के बाद इस पार्टी पर रामविलास के बेटे चिराग पासवान ने अपना आधिपत्य कायम करने की कोशिश की। इससे परिवार में खटास बढ़ी, 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान लोजपा के राजग गठबंधन से अलग चुनाव लडऩे व नीतीश को नुकसान पहुंचाने के चिराग पासवान के अकेले के स्टैंड ने पासवान परिवार में असंतोष बढ़ा दिया। लोजपा को तो फायदा नहीं हुआ, लेकिन आज पार्टी पर अधिकार को लेकर बगावत ने चिराग पासवान को अकेला कर दिया है।
दरअसल देश में परिवारवादी पार्टियां निजी घराना कंपनी की तरह चलती हैं। समाजवादी पार्टी में चाचा शिवपाल यादव व भतीजा अखिलेश यादव के बीच विवाद जगजाहिर है। राजद में लालू के बेटे तेजस्वी व तेज प्रताप के बीच अनबन की खबरें भी पार्टी के अंदर परिवार का संघर्ष ही है। समाजवादी आंदोलन से निकले मुलायम, लालू, पासवान, सरीखे नेताओं ने राजनीतिक रूप से अपने परिवार का ही पोषण किया। करुणानिधि, फारूक अदुल्ला, ओमप्रकाश चौटाला, अजीत सिंह आदि ने भी अपनी पार्टी में परिवारवाद को बढ़ाया। अभी ममता बनर्जी व मायावती भी उसी राह पर बढ़ी दिख रही हैं। कांग्रेस समेत इस सभी परिवारवादी दलों में अंदरूनी लोकतंत्र का घोर अभाव है। जनता को देश में परिवार के ईदगिर्द चल रही पार्टी को पहचानना चाहिए। लोजपा में विदेह किसी राजनीतिक दल का लोकतांत्रिक संघर्ष नहीं है, बल्कि परिवार के अंदर वर्चस्व की लड़ाई है।