परिवर्तन की आहट जब दरवाजे पर दस्तक देती है तो वह गूंज बनकर दूर तक सुनाई देती है। सौ दिन से अधिक समय से चल रहे किसान आंदोलन से निकले विद्रोही स्वर भी राजनीतिक वातावरण में बदली भाषा और मुहावरे के साथ सुनाई पड़ रहे हैं। गाजीपुर बॉर्डर से लेकर मेरठ तक आम आदमी पार्टी के पर्चे और पोस्टर इन परिवर्तनों की गवाही दे रहे है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध लोकपाल की नियुक्ति के लिए चला अभियान अब किसान क्रांति में बदल चुका है और अन्ना हजारे के स्थान पर स्व. चौधरी चरण सिंह का आदमकद चित्र आने वाले और वर्तमान दौर की वास्तविकता बखान करता है।
अंतर्विरोध का मुकाबला
डॉ. आंबेडकर के बाद चौधरी चरण सिंह दूसरे नेता हैं, जो अपने जीवन काल में कई कारणों से विवादित भी रहे और अप्रासंगिक भी हुए। डॉ. आंबेडकर का मुकाबला परतंत्र भारत में महात्मा गांधी से हुआ था। गांधी देश की संपूर्ण आबादी की आजादी के एकमात्र नायक बनकर उभरे। आंबेडकर की लड़ाई हिंदू धर्म के अंदर असमानता और जातिगत भेदभावों को लेकर थी। इतिहास गवाह है कि दोनों नेताओं की दूरदर्शिता की बदौलत पूना पैक्ट के जरिए उस खाई को पाटने का प्रयास काफी सफल रहा, जो उनकी राजनीति के चलते बनने लगी थी। ऐसे ही अंतर्विरोध का मुकाबला चौ चरण सिंह को तब करना पड़ा जब उन्होंने भूमि सुधार, सहकारी खेती और असली भारत की उपेक्षा जैसे गंभीर प्रश्न उठाकर जवाहरलाल नेहरू की नाराजगी मोल ली थी।
आजादी के दौरान चंपारण किसान आंदोलन का सफल नेतृत्व कर गांधी जी स्वयं किसान हितों के बड़े पैरोकार बनकर उभरे थे, लेकिन किसान हितों की राजनीति को धार देने का काम सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया। निस्संदेह पं. नेहरू सोवियत संघ की अक्टूबर क्रांति और यूरोप में बह रही औद्योगीकरण की बयार से प्रभावित थे, लेकिन सरदार पटेल की उपस्थिति का असर था कि प्रथम पंचवर्षीय योजना में कृषि क्षेत्र के लिए 35 प्रतिशत भाग और औद्योगिक क्षेत्र के लिए 15 प्रतिशत राशि आवंटित की गई। सरदार पटेल की असमय मृत्यु ने इस प्राथमिकता में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया। दूसरी और तीसरी पंचवर्षीय योजनाओं में कृषि क्षेत्र के लिए 15 प्रतिशत और औद्योगिक विकास के लिए 35 प्रतिशत राशि का आवंटन हुआ।
यह वह दौर था जब किसानों और गांवों की हालत बद से बदतर हो रही थी। 1951 से लेकर 1971 तक गेहूं, चावल, चीनी, दाल और तिलहन, सभी का आयात किया जा रहा था। यह वह दौर था जब कृषि क्षेत्र के लिए बिजली की दर औद्योगिक क्षेत्र के लिए तय बिजली दर से 5 गुना अधिक थी। पं. नेहरू कई महत्वपूर्ण अवसरों पर सार्वजनिक तौर पर घोषणा कर चुके थे कि देश की उन्नति के मूल में यही बड़े कारखाने होंगे। ग्रामीण भारत की ऐसी उपेक्षा के कारण देश में अन्न संकट निरंतर गंभीर होता गया। यह पंडित नेहरू का बड़प्पन ही है कि उन्होंने अपने अंतिम दिनों में 11 दिसंबर 1963 को लोकसभा में स्वीकार किया- ‘मैं बड़े-बड़े कारखानों और तकनीक का प्रशंसक रहा हूं, लेकिन देश की गरीबी और बेरोजगारी की समस्या इससे दूर नहीं हुई। मेरी और योजना आयोग की गलती के कारण देश की आर्थिक संपत्ति का बहुत बड़ा नुकसान हुआ। मैं लोकसभा को वचन देता हूं कि भविष्य में यह गलती नहीं होगी।’
ग्रामीण क्षेत्र के सवालों को स्वर देने का काम चौधरी चरण सिंह ने भी बखूबी किया। अधिक लोगों की जानकारी में यह नहीं है कि चौधरी चरण सिंह ने न सिर्फ ग्रामीण एवं किसान हितों को प्रमुखता के साथ उठाया बल्कि लगभग एक दर्जन प्रस्ताव लिखकर ब्यौरेवार स्वतंत्र भारत की स्वावलंबी योजनाओं का प्रचार किया। 1937 में उन्होंने एक प्रसिद्ध अंग्रेजी दैनिक समाचार पत्र में दो लेख लिखकर किसानों के शोषण का विस्तार से उल्लेख किया, जिससे प्रभावित होकर संयुक्त पंजाब के तत्कालीन राजस्व मंत्री सर छोटू राम ने संशोधित मसौदे को अपने यहां के मंडी सुधारों का केंद्र बिंदु बनाया।
आजादी से पहले सरकारी नौकरियों में ग्रामीण युवकों की भर्ती ना के बराबर थी। उस समय 1937 में कांग्रेस पार्टी की विधान मंडल दल की सभा में प्रस्ताव रखा गया कि सरकारी नौकरियों में ग्रामीण पृष्ठभूमि के युवकों की 50 प्रतिशत साझेदारी सुनिश्चित की जाए। स्वयं एक सामान्य कृषक परिवार में पैदा होने वाले चौधरी साहब गांवों के सामंती ढांचे से परिचित थे। उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्यमंत्री गोविंद वल्लभ पंत के राजस्व मंत्री होने के नाते क्रांतिकारी भूमि सुधारों का समूचा श्रेय चौ. चरण सिंह को जाता है। आजकल भी कई दलों के विभिन्न कार्यक्रमों में यह नारा प्रचलित है, ‘जो जमीन को जोते बोए, वह जमीन का मालिक है।’ इस नारे के क्रियान्वयन का श्रेय भी चौ. चरण सिंह को जाता है।
नागपुर में कांग्रेस पार्टी का राष्ट्रीय अधिवेशन 1955 में आहूत था। पंडित नेहरू सोवियत संघ के सरकारी कृषि कार्यक्रम से प्रभावित थे। चौ. चरण सिंह ने संशोधन प्रस्ताव रखकर उसका विरोध किया तो समूचा पंडाल तालियों से गूंज उठा और आधिकारिक प्रस्ताव पारित नहीं हो सका। हालांकि इसके साथ ही वे कांग्रेस हाई कमान की आंखों की किरकिरी बन गए। पंत जी के कार्यकाल में लाल बहादुर शास्त्री और चंद्रभान गुप्ता के साथ संसदीय सचिव की भूमिका निभाने के बाद भी मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण स्थान पाने में वे असफल रहे।
कृषि पर कम हो बोझ
सरकारी खेती के विरोध में 1959 में पहली पुस्तक लिखकर उन्होंने विस्तार से इसके दुष्प्रभावों पर प्रकाश डाला। लगभग एक दर्जन से अधिक पुस्तकों के वे लेखक हैं। 1964 में प्रकाशित उनकी पुस्तक काफी लोकप्रिय रही, जिसमें उन्होंने भारत की गरीबी और उसके समाधान पर ब्यौरेवार प्रकाश डाला। किसानों की आमदनी बढ़ाने के साथ-साथ कृषि भूमि में लगे लोगों की संख्या कम करने का भी इसमें उल्लेख है। 1981 में ‘भारतीय अर्थनीति का दिवास्वप्न’ पुस्तक लिखकर अपनी बनाई जनता पार्टी की प्राथमिकताओं को भी उन्होंने जमकर कोसा। आज के किसान आंदोलन में ऐसे कई नारे उभर रहे हैं, जो चौ. चरण सिंह की किताबों से उद्धृत हैं।
केसी त्यागी
(लेखक जेडीयू के प्रधान महासचिव हैं ये उनके निजी विचार हैं)