भाजपा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के नेतृत्व वाली हरियाणा सरकार ने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली है। अपनी सहयोगी जननायक जनता पार्टी के दबाव में उसने प्राइवेट सेक्टर में हरियाणवियों के लिए प्राइवेट नौकरियों में 75% आरक्षण का प्रस्ताव रखा है। यह कानून 50 हजार रुपए प्रतिमाह से कम कमाने वालों पर लागू होगा।
उद्योगों को डर है कि नया कानून हरियाणा को गैर-प्रतिस्पर्धी और व्यापार के लिए अनाकर्षक बना देगा। इससे स्थानीयों को नौकरी मिलने की बजाय, छिनने लगेंगी। लेकिन असली नुकसान यह है कि अन्य राज्य भी इसी राह चलेंगे और भारत के टुकड़े-टुकड़े होने लगेंगे। उम्मीद यह है कि अदालतें कानून को असंवैधानिक घोषित कर दें।
इसका बड़ा उदाहरण गुड़गांव है, जो हरियाणा का औद्योगिक विकास और नौकरियां पैदा करने का मुख्य केंद्र है। इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में इसकी वैश्विक पहचान है। इसकी समृद्धि ने स्थानीय लोगों को इस क्षेत्र ने बहुत नौकरियां दी हैं। जब आईटी उद्योग के वरिष्ठों को नया कानून पता चला, वे नोएडा या अन्य जगहों में विस्तार पर विचार करने लगे। सरकार ने तुरंत प्रतिक्रिया दी कि नए कानून से आईटी इंडस्ट्री प्रभावित नहीं होगी।
लेकिन अन्य उद्योग चिंतित हैं। गुड़गांव की एक डिजाइन आधारित कंपनी को कुशल डिजाइनर्स की जरूरत होती है, जिन्हें वह पूरे भारत से नियुक्त करती है। हां, कानून अपवादों के लिए प्राधिकरणों में आवेदन की अनुमति देता है, लेकिन कंपनियों को डर है कि इससे देरी, भ्रष्टाचार और लाइसेंस राज के नए स्वरूप के प्रबंधन का बोझ होगा। ऐसे में वे हरियाणा से बाहर जाने की सोच सकते हैं। हरियाणा सरकार ने लालफीताशाही खत्म करने और बिजनेस आसान बनाने की दिशा में अच्छा काम किया है।
इसने कई कंपनियों को आकर्षित किया। लेकिन यह कानून उल्टी दिशा में उठाया गया कदम है। कानून ने अधिकारियों को नया सिरदर्द दिया है कि यह कैसे तय होगा कि कोई हरियाणवी है? ऐसे व्यक्ति के साथ क्या होगा जिसके माता-पिता में से कोई एक दिल्ली, पंजाब या यूपी से है और दूसरा हरियाणा से? इस कानून को लागू करने के लिए राज्य के अधिकारी लोगों से हरियाणवी होने का सबूत मांगेंगे। बेचारा हरियाणवी ऐसे देश में सबूत कहां से लाएगा, जहां कई लोगों के दस्तावेज नहीं होते?
यह कानून खासतौर पर प्रधानमंत्री मोदी और उनके ‘एक भारत’ के स्वप्न को शर्मसार करता है, जिसके आधार पर उन्होंने जीएसटी को उचित ठहराया था। नया आरक्षण कानून प्रवासी कामगारों के लिए खतरनाक होगा। कई लोगों को वह नुकसान याद आ जाएगा, जो शिवसेना ने मुंबई की खुली संस्कृति को पहुंचाया था। महाराष्ट्रियनों को नौकरी के समर्थन में 1970 के दशक उसने माटुंगा और दादर में तमिलों को पीटा था। फिर 1980 के दशक में उसने सिख टैक्सी ड्राइवरों पर और नब्बे के दशक में बिहारियों और यूपी के भईयों पर हमले शुरू कर दिए।
हरियाणा सरकार के कानून से ‘टुकड़े-टुकड़े’ की ओर बढ़ेंगे क्योंकि राष्ट्रीय पहचान पर क्षेत्रीय पहचान हावी हो जाएगी। प्रवासी कामगार ‘मेरे राज्य में विदेशी’ बन जाएंगे। यह कानून न सिर्फ आर्थिक नुकसान करेगा, बल्कि सामाजिक अशांति भी बढ़ाएगा। हालांकि, नुकसान होने से पहले शायद अदालतें इस कानून को गैरकानूनी घोषित कर दें। इसके पर्याप्त कानूनी साक्ष्य हैं कि यह ‘कानून से पहले समानता’ के अनुच्छेद 14 और नागरिकों को देश में कहीं भी कार्य करने का अधिकार देने वाले अनुच्छेद 19 का उल्लंघन करता है।
आंध्र प्रदेश ने भी ऐसा कानून लाने की कोशिश की है और उसका हाई कोर्ट इसे गैर-कानूनी घोषित कर सकता है। हरियाणा के राजनेता यह अच्छे से जानते हैं और यही निराशाजनक है क्योंकि वे अपने विधानसभा क्षेत्रों में वापस जाएंगे और कहेंगे, ‘देखो, हमने कोशिश की थी, पर हमारे हाथ बंधे हुए थे। हम अदालत के कारण कानून लागू नहीं कर पाए।’ हरियाणा और आंध्र के बाद झारखंड ने भी घोषणा की है कि वह ऐसा ही कानून लाएगा। अन्य राज्य भी ऐसा कर सकते हैं। बुरे और खुद को आत्मघाती कानून क्यों बन रहे हैं?
कारण यह है कि राजनीति और अर्थव्यवस्था अक्सर एक साथ नहीं चलतीं। आर्थिक नीतियां लंबे समय में असर दिखाती हैं, ये पांच दिवसीय टेस्ट मैच हैं। लेकिन राजनीति टी20 की तरह कम अवधि का खेल है। राजनीति में आपको हर कीमत में चुना जाना होता है और आपके पास कुछ करने के लिए 5 साल ही होते हैं। इसीलिए, नेता और आर्थिक सुधारकों की रुचियां अलग-अलग होती हैं। एनटी रामा राव जैसा नेता एक रुपए प्रति किलो चावल के वादे पर जीतकर आंध्र प्रदेश का कोष खाली कर देता है।
पंजाब का नेता किसानों से मुफ्त पानी और बिजली का वादा कर राज्य को दिवालिया कर देता है। इस बेमेलपन के कारण, लोकतंत्र में सुधार लागू करना मुश्किल है। यही कारण है कि 75% आरक्षण देने वाले आत्मघाती कानून हरियाणा में लागू होते हैं। जब तक लोगों को इसके नुकसान का अहसास होगा, कानून लागू कर चुनाव जीतने वाले नेता जा चुके होंगे।
गुरचरण दास
(वरिष्ठ लेखक व स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)