कश्मीरी पंडितों की वापसी

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कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और सुप्रसिद्ध नेता डा. फारुक अब्दुल्ला ने एक वेबिनार में गजब की बात कह दी है। उन्होंने कश्मीर के पंडितों की वापसी का स्वागत किया है। कश्मीर से तीस साल पहले लगभग 6-7 लाख पंडित लोग भागकर देश के कई प्रांतों में रहने लगे थे। अब तो कश्मीर के बाहर इनकी दूसरी और तीसरी पीढ़ी तैयार हो गई है। अब कश्मीर में जो कुछ हजार पंडित बचे हुए हैं, वे वहां मजबूरी में रह रहे हैं। केंद्र की कई सरकारों ने पंडितों की वापसी की घोषणाएं कीं, उन्हें आर्थिक सहायता देने की बात कही और उन्हें सुरक्षा का आश्वासन भी दिया लेकिन आज तक 100-200 परिवार भी वापस कश्मीर जाने के लिए तैयार नहीं हुए।

कुछ प्रवासी पंडित संगठनों ने मांग की है कि यदि उन्हें सारे कश्मीर में अपनी अलग बस्तियां बसाने की सुविधा दी जाए तो वे वापस लौट सकते हैं लेकिन कश्मीरी नेताओं का मानना है कि हिंदू पंडितों के लिए यदि अलग बस्तियां बनाई गईं तो सांप्रदायिक ज़हर तेजी से फैलेगा। अब डा. अबदुल्ला जैसे परिपक्व नेताओं से ही उम्मीद की जाती है कि वे कश्मीर पंडितों की वापसी का कोई व्यावहारिक तरीका पेश करें।कश्मीरी पंडितों का पलायन तो उसी समय (1990) शुरु हुआ था, जबकि डा. फारुक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री थे। जगमोहन नए-नए राज्यपाल बने थे। उन्हीं दिनों भाजपा नेता टीकालाल तपलू, हाइकोर्ट के जज नीलकंठ गंजू और पं. प्रेमनाथ भट्ट की हत्या हुई थीं। कई मंदिरों और गुरुद्वारों पर हमले हो रहे थे। मस्जिदों से एलान होते थे कि काफिरों कश्मीर खाली करो। पंडितों के घरों और स्त्रियों की सुरक्षा लगभग शून्य हो गई थी।

ऐसे में राज्यपाल जगमोहन क्या करते? उन्होंने जान बचाकर भागनेवाले कश्मीरी पंडितों की मदद की। उनकी सुरक्षा और यात्रा की व्यवस्था की। जगमोहन और फारुक के बीच ठन गई। यदि पंडितों के पलायन के लिए आज डाॅ. फारुक जगमोहन के विरुद्ध जांच बिठाने की मांग कर रहे हैं तो उस जांच की अग्नि-परीक्षा में सबसे पहले खुद डॉ फारुक को खरा उतरना होगा। बेहतर तो यह होगा कि ‘बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुध लेय’! पंडितों के उस पलायन के लिए जो भी जिम्मेदार हो, आज जरुरी यह है कि कश्मीर के सारे नेता फिर से मैदान में आएं और ऐसे हालात पैदा करें कि आतंकवाद वहां से खत्म हो और पंडितों की वापसी हो।

डॉ वेदप्रताप वैदिक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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