चिपको आंदोलन की जमीन रैणी और लाता में ऋषिगंगा नदी पर बने बांध का बह जाना कई सवाल खड़े करता है। पहला सवाल तो यही बनता है कि या हिमालय से जुड़े गाद-गदेरों और नदियों को बांधों की कतारों से बांध देना उचित है? और अगर हमने ऐसा किया है तो या उन खतरों को नकार सकते हैं जो इस तरह के बांधों के टूटने का कारण बनते रहते हैं? इस बड़े सवाल का जवाब देना आसान नहीं है, लेकिन इस घटना ने यह तो स्पष्ट कर ही दिया है कि बांधों का यह भी एक भयावह पहलू है। अब इन्हें मात्र ऊर्जा बांध नहीं कहा जा सकता। इनका स्वरूप वाटर बम जैसा हो चुका हैं। सोचने की जरूरत है कि एक छोटा सा बांध जिसकी क्षमता 34-50 मेगावाट थी, उसके टूटने के कारण इतनी भयावह स्थिति हो सकती है कि एक बार सब कुछ ही तबाह होता दिखता है। जहां यह बांध टूटा वहां से 50-100 किलोमीटर दूर तक नदी ने भयानक तेवर दिखाए। रैणी गांव के नजदीक बने इस बांध ने 2019 में बिजली उत्पादन शुरू कर दिया था। इसमें छोटे-मोटे कार्य चल रहे थे तो श्रमिक भी थे। 155 से अधिक मजदूरों के हताहत होने की आशंका है। रैणी की सड़क भी लापता हो गई है। रैणी पार जुगजू गांव का पुल भी अब नहीं रहा। इसी तरह जुवा गाड़ पुल और गंगा पार पुल भी एक झटके में बह गए। बांध में से जेसीबी और अन्य गाडिय़ां भी साफ हो गईं।
इस नई आपदा ने कई स्थानीय सवालों के साथ बिगड़ते पर्यावरण के सवाल भी खड़े किए हैं। उत्तराखंड एक संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र है। इसे एक अलग राज्य का रूप देने की मांग के पीछे यह तर्क भी था। हालांकि राज्य बनने के बाद यह तर्क इसकी विकास योजनाओं में कहीं नहीं दिखा। एक के बाद एक त्रासदियां कई सरकारों ने देखीं पर किसी ने भी इन्हें लेकर कोई गंभीरता नहीं दिखाई। देशदुनिया में ऊर्जा की बढ़ती मांग और इसके जवाब में खड़ी की जा रही बांधों की कतार देख कर तो यही लगता है कि ऐसे दुष्परिणाम आने वाले समय में हमें झेलते रहने होंगे। बहरहाल, इस घटना को कई अन्य कारकों से जोड़कर भी देखा जाना चाहिए। पहला, धरती का बढ़ता तापक्रम हिमखंडों को स्थिर नहीं रख पाता। अंटार्कटिका और अन्य बर्फीले इलाकों से हिमखंडों के टूटने पिघलने की खबरें आती रहती हैं। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि हम इस तरह के बांध बनाते समय हिमखंडों से सुरक्षित दूरी भी बरकरार नहीं रखते। तीसरी और ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि हमने हिमालय में जल की उपलब्धता को बांध खड़े करने का आधार तो बना लिया है पर पहाड़ी राज्यों की पारिस्थितिकी और उनकी संवेदनशीलता का आकलन करते हुए बांधों की सीमाएं तय नहीं की हैं। यह नहीं सोचा है कि किस राज्य और पारिस्थितिकी में कितने बांध बनने चाहिए।
कम से कम अब इस घटना के बाद तत्काल इस सवाल को लेकर व्यापक बहस होनी चाहिए कि हमारे बांधों और अन्य विकास परियोजनाओं की क्या सीमा हो, ताकि वे हमारे लिए खतरा न बन जाएं। जरूरी है कि इस तरह की बातों और बहसों को विकास विरोधी न करार दिया जाए। इन्हें संतुलन स्थापित करने की कोशिश के रूप में लिया जाए। ऐसी बहसें न होने क्या इन्हें तवज्जो न देने की वजह से ही हिमालय ऐसे हादसों की मार झेल रहा है। समझना होगा कि हिमालय की बर्बादी मात्र हिमालय तक ही सिमटी नहीं रहेगी। इसके चौतरफा दुष्प्रभावों से गैरहिमालयी राज्य भी ज्यादा समय तक बचे नहीं रह सकेंगे। बढ़ते जल असंतुलन के चलते जहां एक तरफ पानी की कमी बढ़ेगी, वहीं दूसरी तरफ बाढ़ के प्रकोप भी झेलने होंगे। कल्पना कीजिए कि ऋषिगंगा का यह बांध मात्र 34 मेगा वाट की क्षमता वाला न होकर 500 मेगा वाट का होता तब या होता। उस स्थिति में बहुत संभव था कि हादसे का कहर दिल्ली तक पहुंच जाता। अभी भी देर नहीं हुई है। हमें यह संकेत समझ लेना चाहिए कि प्रकृति हमसे आखिर चाहती या है। बार-बार इस तरह के संकेत आ रहे हैं जो प्रकृति के साथ छेड़छाड़ से जुड़े हुए हैं। दिलचस्प है कि उत्तराखंड क्या हिमाचल प्रदेश और तमाम हिमालयी राज्यों की घटनाएं कहीं न कहीं हमारी अविवेकपूर्ण विकास योजनाओं का परिणाम हैं।
इसके अलावा बढ़ते तापक्रम की समस्या का दायरा चाहे जितना भी बड़ा हो, उसकी भी सबसे ज्यादा मार हिमालय पर ही पडऩे वाली है। प्रकृति के संकेतों को समझना वैसे सिर्फ हिमालय के संदर्भ में ही नहीं, हर लिहाज से आज की सबसे बड़ी जरूरत है। इसकी मार हमेशा अचानक पड़ती है और तब हमें संभलने का मौका भी नहीं मिल पाता। हम सबको सामूहिक रूप से यह तो तय करना ही पड़ेगा कि चाहे हिमालयी राज्य हों क्या गैर हिमालयी, कुदरत के तकाजों की अब और अवहेलना नहीं होने दी जा सकती। हमें अपने पारिस्थितिक दायित्व को समझते हुए अपनी भूमिका अब इस रूप में तय करनी पड़ेगी कि क्या तो हम कम ऊर्जा का उपयोग करें जिससे प्रकृति को नुकसान न हो क्या फिर अन्य उपायों से यह सुनिश्चित करें कि प्रकृति को संभालने में हमारी अधिकाधिक भागीदारी हो। जैसा हमारा वर्तमान व्यवहार है वह जारी रहा तो ऐसे हादसों की शृंखला से कभी पीछा नहीं छूटेगा। अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टें बताती हैं कि अगर हमने अपना यही रुख बरकरार रखा तो 21वीं सदी के समाप्त होने तक हम ऐसे ऊंचे तापक्रम में पहुंच जाएंगे कि समुद्र काफी सारी जमीनों को लील लेगा और प्रदूषण उस स्तर तक पहुंच चुका होगा कि हमारे लिए सांस लेना दूभर हो जाएगा। एक वाय में कहा जाए तो प्रकृति ने हमें काफी समय तक पाला। अब समय आ गया है जब हम भी अपना दायित्व समझते हुए प्रकृति को संभालें। किसी और से नहीं, हमें अपने आप से ही प्रकृति को बचाना है, तभी हम भी बचेंगे।
अनिल पी जोशी
(लेखक पर्यावरण विद हैं ये उनके निजी विचार हैं)