शहीद सैनिकों के प्रति संवेदनहीनता

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बड़ा अफसोस होता है यह सुनकर कि शहीद सैनिक, जिन्होंने देश सुरक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान दिया, उनके परिवार न्याय मांगने के लिए सरकारी कार्यालयों के चकर काट रहे हैं। शहीदों के प्रति हमारे तंत्र की या यही संवेदनाएं हैं कि उन्हें दतरों के चकर कटवाएं जाएं। शर्म आनी चाहिए देश के उन नेताओं को जो उनकी शाहदत पर अपनी सियासी रोटियां सेंकते हैं। आखिर कहां चला जाता है वह जोश व आक्रोश जो शाहदत के दिन हम लोगों में दिखाई देता है। क्यों मर जाती है हमारी संवेदनाएं। दो वर्ष के बाद भी पुलवामा हमले के शहीद सैनिकों के परिजनों को न्याय नहीं मिल सका। हमले में शहीद पांच सैनिकों की फाइल अभी तक दतरों में धूल फांक रही है। परिजन दतरों के चकर काट रहे हैं। पुलवामा हमले में शाहदत देने वाले जयपुर के रोहिताश के परिजनों की दास्तां भी मानवता को चुनौती दे रही है। वर्ष 2013 में आरपीएफ में भर्ती होने वाले उन खुशनसीब सैनिकों में थे जिन्होंने देश की खातिर अपना बलिदान दिया था। परिवार में माता-पिता व छोटे भाई के अलावा पत्नी व दो वर्ष का बेटा है। पत्नी की तबीयत खराब रहने से छोटा भाई जितेंद्र ही दतरों की भागदौड़ कर रहा है।

बूढ़े मां-बाप खेती भी नहीं कर सकते इसलिए खेत-यार का काम बंद है। घर में कमाने वाला देश की खातिर शहीद हो गया। जितेंद्र का ये कहना कितना मानवता को झकझोर देने वाला है कि सरकारी बाबू उनकी फाइल को दबाए बैठे हैं, जब नेताओं से सिफारिश करें तो कहते हैं कि तुम भाजपा वाले हो, वहीं से मदद मांगो। नेता जो शहीद की शाहदत पर देशभत होने का नाटक करते हैं, लोगों को भड़काकर अपना उल्लू सीधा करते हैं। शाहदत के बाद इन पीडि़त परिवारों का गुजारा कैसे होता है, इसकी खबर लेने कोई राजनेता उनके पास नहीं आता है। यह कहानी मात्र रोहिताश की ही नहीं बल्कि उन्नाव के अजीत, भागलपुर के रतन कुमार ठाकुर पटना के संजय कुमार सिंहा के परिजन भी इसी दौर से गुजर रहे हैं। रतन ठाकुर के पिता बुढ़ापे की हालत में एक किराए के मकान में रह रहे हैं। बूढ़े पिता को बेटी की शादी, रतन के बच्चों की शिक्षा, लैट न मिलने की चिंता सता रही है। जो घोषणाएं शाहदत के समय सरकार द्वारा की गई थी उनमें से एक भी पूरी नहीं हो सकी। राजस्थान के ही जीतराम गुर्जर के परिजनों को दो साल बाद भी न नौकरी मिली, न उनकी फाइल आगे बढ़ सकी।

बूढ़ा पिता मजदूरी करे या फाइल को सरकाने के लिए दतरों के चकर काटे। उन जैसे कई लोग हैं जो विवशताओं का शिकार हैं। जो लोग शहीदों की शाहदत पर केवल सियासत करते हैं उन्हें सोचना चाहिए कि देश की आनबान पर शहीद होने वाले सैनिक भी किसी के बेटे, किसी के भाई, किसी के पति, किसी के पिता हैं। उनकी शाहदत का सम्मान करना सरकार का उत्तरदायित्व है। जो लोग विशेषकर हमारा तंत्र हमले के दौरान अपना व्यत करता है, शहीदों के परिजनों कल्याण के लिए लंबे-चौड़े वादे करता है, आखिर वह भूल क्यों जाता है। शहीदों के बलिदान को वह सियासत में बदलना चाहता है। हमारी प्रभावशाली सरकार शहीदों के परिजनों को न्याय देने में इतना समय क्यों लेती है? इसे स्वार्थ की सियासत ही कहा जाएगा कि शाहदत के समय तंत्र की आंखों में आंसू और दिल में बदला लेने का जोश था। दुश्मन से बदला तो लिया लेकिन शहीदों के परिवारों यों भूल गए। होना तो ये चाहिए कि सरकार को इन पीडि़त परिवार की खबर हो, उनकी जरूरतों का ध्यान में रखकर उनकी समस्याओं को निपटारा करने में देर न हो।

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