सोशल डिस्टेंसिंग की परंपरा रही है

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ट्रक के पीछे ‘हॉर्न प्लीज़’ के अलावा सबसे ज्यादा अगर कोई वाक्य लिखा होता है, तो वह ‘कीप डिस्टेंस’ यानी दूरी बनाएं रखें होता है। कोविड-19 के इस दौर में यही हमें सबसे ज्यादा सुनाई दे रहा है। सार्वजनिक जगहों पर दूरी बनाए रखे हुए, तो एक-दूसरे को दूरी बनाए रखने की नसीहत देते हुए लोग दिखाई पड़ रहे हैं। चूंकि वैश्विक स्तर पर महामारी का खतरा बना हुआ है, ऐसे में सोशल डिस्टेंसिंग ही एकमात्र रास्ता नज़र आ रहा है। किसी संक्रामक बीमारी के प्रबंधन में दवा और इलाज से इतर सोशल डिस्टेंसिंग का यह उपाय प्रकृति और मानव इतिहास में पहले से ही मौजूद रहा है। बंदर, चमगादड़, कीड़े-मकोड़े और चींटी जैसे जीव भी जीवित रहने के लिए अपनी ही प्रजाति के बीमार जानवर से दूरी बना लेते हैं। बीमार व्यक्ति को आइसोलेट करने का मानव इतिहास में पहली बार जिक्र संभवत: बाइबिल में, लेविटिकस 13:46 में किया गया था- ‘और वह कोढ़ से पीड़ित, जिसे प्लेग है… वह अकेला रहेगा; कैम्प ही उसका निवास स्थान होगा।’ मानव इतिहास में आईं लगभग सभी महामारियों में बीमार व्यक्ति से दूरी बनाकर रखने की परंपरा रही है।

जब प्रकृति और हमारे इतिहास में भी सोशल डिस्टेंसिंग की परंपरा रही है, तो अभी हमें यह कठिन क्यों लग रही है? इसका जवाब एक नस्ल के रूप में हमारे शारीिरक और सांस्कृतिक विकास में छुपा हुआ है। जब हमारे पूर्वज दो पैरों पर खड़े हुए, तब इसका एक कारण पैरों पर खड़े होकर हाथों को फ्री करना था, ताकि हाथों से खाने का आदान-प्रदान हो सके, खासतौर पर बच्चों और उनकी देखभाल करने वालों के लिए। इतिहास बताता है कि मानव जाति हमेशा ही एक-दूसरे की देखभाल करते हुए और चीजें साझा करते हुए समूहों में ही रही है। हम इंसान एक-दूसरे के सहयोग और साथ काम करने की आदत के कारण ही इस धरती के मालिक बनने के लिए विकसित हुए हैं। यही कारण है कि आज उन सब कामों को करने की इच्छा हो रही है, जो महामारी से पहले हम मिलकर करते थे और आनंद उठाते थे। जैसे स्कूल, कॉलेज, दोस्तों के साथ बाहर घूमना, थिएटर या रेस्त्रां जाना, देवालय जाना या ट्रैवल करना। सोशल डिस्टेंसिंग के दौर में लोगों से निकटता और साथ रहने वाली यह भावना कहीं दूर हो गई है।

कोविड के कारण हम उन लोगों से भी दूर हो गए हैं, जिन्हें हमारी जरूरत है। सोशल डिस्टेंसिंग हमारी मूल प्रवृत्ति के विपरीत है, इसलिए यह चुनौतीपूर्ण भी है। वायरस के कारण इस न्यू नॉर्मल से हमने इंटरनेट की ओर रुख किया है। इंटरनेट का शुक्र है कि हम शारीरिक रूप से तो दूर हुए हैं लेकिन सामाजिक रूप से कटे नहीं हैं। महामारी से पहले इंटरनेट के चलते सामाजिक रूप से लोगों को दूर करने के लिए हम कोस रहे थे। लेकिन अचानक इसने अपनी नई सुविधाओं, जैसे वीडियो कांफ्रेंसिंग, वेबिनार्स, चैट ग्रुप्स, ऑनलाइन प्रस्तुतियों से हमें साथ ला दिया है। इन दिनों बाजार हो या पार्क, किसी को अपनी ओर आता हुआ देख दूरी बनाए रखने के लिए या तो हम अपना रास्ता बदल लेते हैं या रुक जाते हैं।

यह वह दुनिया नहीं है, जहां हम अभी तक रह रहे थे, न ही हम ऐसी दुनिया में अनिश्चित काल तक रहना चाहेंगे। तो इस आशा के साथ कि एक दिन इस सबका अंत हो जाएगा इसके लिए फिलहाल हमें ट्रक ड्राइवर के कीप डिस्टेंस वाले कोट का ईमानदारी से पालन करना होगा। इतिहास और प्रकृति, दोनों हमें बताते हैं कि सोशल डिस्टेंसिंग अस्थायी उपाय है। थोपी गई सोशल डिस्टेंसिंग की यह हिचकी हमारे अंदर इंसानी संवाद और निकटता के मोल और आनंद को फिर से जगाएगी। उम्मीद है कि यह इसकी हमेशा बनी रहने वाली विरासत होगी।

साधना शंकर
( लेखिका भारतीय राजस्व सेवा अधिकारी हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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