सरकार की गलती और विपक्ष की भूमिका

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केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने ओड़िशा के लोगों को लाभान्वित करने के लिए आयोजित वर्चुअल रैली में एक ऐतिहासिक बात कही। उन्होंने कहा कि कोरोना वायरस से लड़ाई में सरकार से कुछ गलतियां हुई हो सकती हैं पर विपक्ष ने क्या किया। यह वाक्य दो मायनों में ऐतिहासिक है। पहला तो यह कि जिस सरकार के सबसे छोटे नुमाइंदे ने भी आज तक नोटबंदी की गलती स्वीकार नहीं की है उसके दूसरे सबसे शक्तिशाली व्यक्ति ने माना की सरकार से कुछ गलतियां हुई हो सकती हैं। यह मामूली बात नहीं है कि जिस सरकार के मुखिया के लिए कहा जाता है कि वे हैं तो सब कुछ मुमकिन है और उनसे कभी कोई गलती नहीं हो सकती, उस सरकार के दूसरे सबसे शक्तिशाली व्यक्ति ने स्वीकार किया कि कुछ गलती हुई हो सकती है। गलती स्वीकार करने से बेहतर करने की गुजाइंश बढ़ती है। सो, अब कुछ बेहतर की उम्मीद की जा सकती है। इस वाक्य का दूसरा हिस्सा ज्यादा दिलचस्प है कि ‘विपक्ष कहां था’। यह बड़ी अस्पष्ट सी बात है, जो ऐसा लग रहा है कि अनायास कह दी गई। इसके पीछे कोई सुविचारित सोच नहीं है। हालांकि ऐसा नहीं है कि इस सरकार के लोग विपक्ष की आलोचना नहीं करते हैं। लेकिन वह आलोचना पहले किए गए कामों यानी 60 साल के कामकाज के लिए होती है। अभी विपक्ष क्या कर रहा है उसे लेकर आलोचना कम होती है।

ज्यादा से ज्यादा यह कहा जाता है कि जिन लोगों को दो बार देश की जनता ने बुरी तरह ठुकरा दिया उनकी बात पर क्या ध्यान देना। ये दोनों बातें समझ में आती हैं कि सरकार और सत्तारूढ़ दल के लोग कहें कि कांग्रेस ने 60 साल के शासन में कुछ नहीं किया और कांग्रेस को दो बार लोगों ने ठुकरा दिया है तो उसकी बात पर क्या ध्यान देना। पर अमित शाह का यह कहना कि कोरोना से लड़ाई में विपक्ष कहां था, कुछ अलग किस्म की बात लगती है। सवाल है कि उनके कहने का क्या आशय था? क्या वे केंद्र सरकार के विपक्ष यानी कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों के लिए कह रहे थे या विपक्षी पार्टियों के शासन वाली राज्य सरकारों के लिए कह रहे थे? चूंकि उन्होंने अपनी एक वर्चुअल रैली में कहा कि सभी राज्यों के मुख्यमंत्री कोरोना से लड़ाई में केंद्र के साथ सहयोग कर रहे हैं और अच्छा काम कर रहे हैं। इसलिए यह मानना चाहिए कि उनका निशाना केंद्र सरकार के विपक्ष पर था यानी उन पार्टियों पर जो केंद्र की सरकार में नहीं हैं और उसके विपक्ष में हैं। सो, अब सवाल है कि ऐसी पार्टियां कोरोना वायरस या किसी भी आपदा से लड़ाई में क्या कर सकती हैं? विपक्ष के पास न तो साधन होते हैं और न संवैधानिक शक्तियां होती हैं इसलिए वह ऐसा कोई काम नहीं कर सकता है, जो सरकार कर सकती है। जो पार्टी सरकार में नहीं है उसकी एक तरह से स्थिति किसी भी गैर सरकारी संगठन की तरह होती है।

वह अपने साधन से कुछ काम कर सकती है पर वह भी तब जब उसकी अनुमति उसे सरकार से मिले। जैसे कांग्रेस पार्टी की महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने उत्तर प्रदेश के मजदूरों को उनके घर पहुंचाने के लिए एक हजार बसें देने की घोषणा की। उन्होंने बसें नोएडा और गाजियाबाद में लगवा भी दीं पर सरकार ने दस तरह की खामियां निकाल कर बसें इस्तेमाल नहीं होने दीं। दूसरे, विपक्षी पार्टियों के सांसद अपनी सांसद निधि से अपने अपने इलाकों के लोगों का कुछ भला कर सकते थे पर केंद्र सरकार ने वह भी कोरोना संकट के शुरू में ही जब्त कर लिया। तीसरे, विपक्ष के नेता एक काम यह कर सकते थे कि वे पीड़ितों के साथ खड़े होते। राहुल गांधी पैदल चल रहे मजदूरों के साथ एकजुटता दिखाने सड़क पर उतरे थे लेकिन उस पर देश की वित्त मंत्री ने कहा कि राहुल गांधी मजदूरों का समय बरबाद करने चले गए थे। यानी विपक्ष के नेता अपने सीमित संसाधनों से लोगों की मदद के साधन नहीं मुहैया करा सकते हैं, उनके पास सांसद निधि भी नहीं बची है, जिससे वे किसी की मदद करें और अगर वे पीड़ितों के साथ खड़े होते हैं तो उससे या तो पीड़ित का समय बरबाद होता है या वह राजनीति हो जाती है! इसके बाद भी अगर सरकार का दूसरा सबसे शक्तिशाली व्यक्ति पूछे कि विपक्ष कहां था तो उसका क्या जवाब हो सकता है!

विपक्ष ने क्या किया, यह बात यहीं समाप्त हो जाती है अब असली सवाल यह आता है कि विपक्ष को क्या करना चाहिए था? इसका जवाब है कि विपक्ष को अपनी मजबूत भूमिका निभानी चाहिए थी। विपक्ष की क्या भूमिका होती है? विपक्ष की भूमिका होती है सरकार को कठघरे में खड़ा करने की, सरकार के काम में कमियां निकालने की, उसे सही काम करने के लिए बाध्य करने की और जहां जरूरत हो वहां आंदोलन करने की। अफसोस की बात है कि समूचा विपक्ष अपनी यह भूमिका निभाने में विफल रहा है। एक तो वैसे भी विपक्ष में दम नहीं बचा है। लगातार दो बार से मुख्य विपक्षी दल का दर्जा हासिल करने में विफल रही कांग्रेस का मनोबल पहले से गिरा हुआ है। कम संख्या में भी प्रभावी विपक्ष की भूमिका निभाने वाली समाजवादी पार्टियों को सत्ता की आदत लग गई है और साम्यवादी पार्टियों की ऐसी स्थिति नहीं बची कि वे इतनी ताकतवर सरकार के खिलाफ आंदोलन खड़ा कर सकें। ऊपर से सत्तारूढ़ दल और उसके समर्थकों का यह रामबाण दांव कि ‘यह समय राजनीति करने का नहीं है’। जो सरकार में है वह 24 घंटे राजनीति कर रहा है पर विपक्ष से कहा जा रहा है कि अभी संकट का समय है इस समय राजनीति नहीं होनी चाहिए। संसदीय लोकतंत्र में राजनीति करना ही पार्टियों का धर्म-कर्म है। उन्हें इस जाल में नहीं फंसना चाहिए।

अजीत दि्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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