यह एक विचित्र सत्य है कि बेहतरीन राजनीतिक परिहास तानाशाही में पाए जाते हैं। ये अक्सर डर के रोमांच व कानाफूसी के बीच पनपते हैं। भारत की आज की दशा पर मुझे सोवियत संघ के आखिरी दिनों में चर्चित एक कहानी याद आ रही है।
लेनिन, स्टालिन, ब्रेझनेव और गोर्बाचेव ट्रेन के एक लग्जरी सैलून में साइबेरिया से गुजर रहे थे। एक जगह एकांत में ट्रेन रुक जाती है। आगे ट्रैक ही नहीं है। तो अब क्या किया जाय? लेनिन कहते हैं कि हमें आसपास से कुछ ग्रामीणों को एकत्र करना चाहिए और ‘द इंटरनेशनल (वामपंथी गान)’ गाना चाहिए और गांव वाले खुशी-खुशी ट्रैक बिछा देंगे। स्टालिन ने कहा कि यह मूर्खतापूर्ण है।
इन लोगों को बुलाओ और कुछ को गोली मार दो बाकी काम कर देंगे, खुशी से या इसके बिना। गोर्बाचेव ने कहा कि मैं अपने दोस्त रोनाल्ड रीगन को सलाह के लिए एक फोन करता हूं। अब तक चुप ब्रेझनेव ने कहा कि देखो सैलून में बहुत अधिक वोदका है। इसे पीते रहो और सोचो की ट्रेन चल रही है।
कोरोना मरीज बढ़ रहे और पीएम रोज नया नारा दे रहे
अब हमारे देश में आज की स्थिति को देखें। कोरोना मरीजों की संख्या और मौत के आंकड़े बढ़ रहे हैं। अर्थव्यवस्था के सभी संकेतक लगातार गिर रहे हैं और चीनी तो चीनी हैं और हमारे प्रधानमंत्री हैं कि एक के बाद दूसरा नारा दे रहे हैं। उम्मीद कर रहे हैं कि लोगों का ध्यान भटक जाएगा।
आत्मनिर्भर भारत की खोज, मछली पालन क्रांति, यूपी में एक ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के लिए सलाहकार की नियुक्ति, चीनी एप्स पर प्रतिबंध, कोविड से प्रति दस लाख सर्वाधिक कम मामलों और मौत के दावों के बीच बढ़ती अर्थव्यवस्था का जश्न, जबकि हकीकत इससे विपरीत है। यह ब्रेझनेव की उस सलाह से कहां अलग है, जिसमें वह ट्रैक न होते हुए भी ट्रेन को चलता हुआ महसूस करने की बात कह रहे हैं?
अगर कोरोना से जीडीपी गिरा तो पिछले दो साल में क्या हुआ?
इस साल की पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था में 23.9 फीसदी का संकुचन रहा। अर्थशास्त्री अरविंद पनगड़िया, तर्क देते हैं कि यह तेज गिरावट अधिकांश कोविड से जुड़ी है। लेकिन दो सवाल उभरते हैं। कोरोना की पहचान से पहले के दो सालों में जीडीपी की विकास दर क्या थी? भारत में पहले से चार लगातार तिमाही में विकास दर गिर चुकी है।
यह एक ऐसी ट्रेन है जो बिना बिजली और ब्रेक के ढलान पर चल रही थी और अब अचानक ट्रैक का अंत (महामारी पढ़ें) आ गया है। यह सोचें कि वायरस के बाद क्या होगा? हमें यह याद रखने की जरूरत है कि इससे पहले कहां जा रहे थे। वायरस ने हमारी दिशा नहीं बदली है। इसने हमारी गिरावट को तेज कर दिया है।
बहुत अधिक केंद्रीयकरण ने विफलताओं को जन्म दिया
इस संकट से निपटने को लेकर और भी मुद्दे हैं। बहुत अधिक केंद्रीयकरण, राज्यों के प्रति विश्वास में कमी और केंद्र के रिमोट कंट्रोल ने अनेक विफलताओं को जन्म दिया। जो अधिकार और दायित्व राज्यों को दिए, वह पहले देने चाहिए थे। आज आपदा प्रबंधन कानून को लागू रखने का कोई औचित्य नहीं है।
ऐसे अधिकारों के कारण ही आईसीएमआर जैसे संस्थान भी कुछ सप्ताह में टीका तैयार करने का फरमान देने लगते हैं। यह भी मानना होगा कि मोदी सरकार ने न तो चीन को उकसाया और न उसे न्योता दिया। चीन ने हरकत इसलिए की क्योंकि उसने देखा कि भारत कोविड संकट में उलझा है और उसकी अर्थव्यवस्था ऐसे वक्त में कमजोर पड़ रही है और दुनिया, विशेषकर अमेरिका का ध्यान हटा हुआ है।
मैं पहले भी कह चुका हूं कि शी की प्रतिक्रिया कश्मीर के दर्जे में बदलाव और अक्साई चिन पर दावा दोहराने के कारण हो सकती है। आप कह सकते हैं कि यह जोखिम नहीं लेना था, परंतु यह आपका नजरिया है।
चीनी चुनौती से निपटने में सरकार का रुख सही है। सेना को पूरी सामरिक स्वतंत्रता दी गई है। आधिकारिक और राजनीतिक बयानबाजी नियंत्रित है और 1962 में नेहरू ने दबाव या नाराजगी में जो गलत प्रतिक्रिया दी थी उससे बचा गया है। तो शिकायत किस बात की है? अगर भारत इस तिहरे संकट में है तो याद करना होगा कि यह कहां से शुरू हुआ?
गलती कहां हुई?
यह हमें फिर अर्थव्यवस्था पर ले जाएगी और वही पुरानी बात आएगी कि 2017 तक भारत की आर्थिक वृद्धि बहुत अच्छी थी। गलती कहां हुई? अर्थव्यवस्था के पहिए किसने थामे या किसने गति पकड़ रही ट्रेन की पटरियां अचानक उखाड़ दीं? यहां पर इन जटिल हालात के लिए मनुष्य का हस्तक्षेप सामने आता है। कोविड ने मार्च के बाद चाहे जो किया हो, लेकिन हम आर्थिक वृद्धि में ठहराव के लिए भगवान या चीन को दोष नहीं दे सकते। इसके पीछे कई अविचारित कदम हैं।
जब सीमा पर एक मजबूत सेना हथियार लेकर चुनौती दे रही हो तो पहला काम यही होता है कि देश के भीतर शांति स्थापित की जाए। पुराने दिनों में राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक बुलाई जाती थी। हम जानते हैं कि बिहार और पश्चिम बंगाल में चुनाव और मध्य प्रदेश के उपचुनाव करीब हैं। लेकिन, ऐसे संकट के समय सरकार अपने लोगों और राजनीति को एकजुट चाहती है।
भारत के आकार का विविधताओं वाला देश कमजोर सामाजिक एकजुटता से मजबूत दुश्मन से नहीं लड़ सकता। मैं जानता हूं कि यह आदर्शवादी बात है, लेकिन क्या हम कुछ महीनों के लिए विभाजनकारी राजनीति छोड़कर इन मुश्किलों पर ध्यान दे सकते हैं। इसका जिम्मा पूरी तरह प्रधानमंत्री और उनकी सरकार पर है।
शेखर गुप्ता
( लेखक एडिटर- इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’ हैं ये उनके निजी विचार हैं)