गोरखालैंड का मुद्दा कमजोर

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यहां के लोगों में रचे-बसे ‘गोरखालैंड’ की जमीन पर दोस्ती के नाम पर दुश्मनी और दुश्मनी के नाम पर दोस्ती, दोनों खेल एकसाथ खेले जा रहे हैं। खुलेआम। राजनीतिक खिलाड़ियों का इकलौता मकसद है- ‘गोरखालैंड राज्य को लेकर अपनी बदनामियों को छुपाने के लिए पब्लिक को बिल्कुल कन्फ्यूज कर देना और अपने लिए उसे नए सिरे से चार्ज करना।’ यही वजह है कि बीते 34 साल में यह पहला चुनाव है, जब पब्लिक के स्तर पर अलग गोरखालैंड राज्य का मसला, चुनावी नतीजों को तय करने की इकलौती हैसियत में नहीं है।

हालांकि, नेता इसे जीत का एजेंडा बनाए हुए हैं। उनके पास सहूलियत से कारगर होने वाला दूसरा उपाय भी नहीं है। ‘गोरखालैंड’ के खास किरदार बिमल गुरुंग का तो पहला एजेंडा ही है-‘गोरखालैंड।’ गुरुंग ही नहीं, यहां सबका अपना-अपना ‘गोरखालैंड’ है; और सब अपने को इसका सूत्रधार/किरदार साबित करने की गलाकाट होड़ में जुटे हैं। ये लड़ाके आपस में ही लड़ गए हैं। पब्लिक कन्फ्यूज्ड है कि आखिर गोरखालैंड दिलाएगा कौन?

गोरखालैंड के तीन बड़े लड़ाके हैं- बिमल गुरुंग, विनय तामंग और मन घीसिंग। इनकी गाइड, BJP और TMC है। कहने को गुरुंग और तामंग, ममता बनर्जी के साथ हैं, लेकिन इन दोनों के उम्मीदवार चुनाव मैदान में एक-दूसरे के सामने डटे हैं। टीएमसी, गुरुंग के साथ है तो उसकी पहाड़ की इकाई ‘हिल टीएमसी’ तामंग के साथ। कर्सियांग के मदन गिरी यह बात जान-समझ नहीं पा रहे कि ‘ममता, इन दोनों में दोस्ती नहीं करा सकीं या जानबूझकर इनकी दोस्ती नहीं चाह रहीं?’

सब बड़ी पार्टियों के मोहरे हैं

पहाड़ पर मदन जैसी राय रखने वाले बहुत सारे लोग हैं। बात ही ऐसी है। दार्जिलिंग के रौशन थापा ने सवालिया लहजे में कहा- ‘हम गुरुंग और तामंग की दुश्मनी को BJP से दोस्ती मानें या ममता बनर्जी से दुश्मनी, जबकि दोनों ममता के साथ की बात कह रहे हैं? यह कैसा साथ है?’ कालिम्पोंग के हरि बहादुर क्षेत्री ने बुनियादी बात कही- ‘जब गोरखालैंड लेना है, तो आपस में लड़ाई क्यों? … ये सब बड़ी पार्टियों के मोहरे हैं। संकट यह है कि हमारे पास विकल्प भी नहीं है।’

बेशक, विकल्प की कमी की स्थिति इन लड़ाकों को अक्सर उनके मकसद में कामयाब करती रही है। अभी की यह आपसी लड़ाई, भाजपा की सेहत के लिए बहुत ठीक है। गोरखालैंड आंदोलन के सबसे बड़े नेता रहे सुभाष घीसिंग के पुत्र मन घीसिंग, भाजपा के साथ हैं। एक और ताकत यानी क्रमाकपा भी भाजपा के साथ है।

लड़ाकों में बिमल गुरुंग सबसे ताकतवर माने जाते रहे हैं। पहले भाजपा के साथ थे। उनकी मदद से भाजपा, 2009 से लगातार दार्जिलिंग लोकसभा की सीट जीतती रही। 2019 में दार्जिलिंग विधानसभा का उपचुनाव भी जीता। पहाड़ियों पर विधानसभा की तीन सीटें हैं-दार्जिलिंग, कालिम्पोंग और कर्सियांग। यह गोरखालैंड का केंद्रबिंदू है।

लड़ाकों की लड़ाई के मूल में उनकी महत्वाकांक्षा और इससे जुड़ा वह बहुत कुछ है, जो बहुत मायनों में उनको बदनामी भी देती रही है; इस बात की भी गवाही है कि कैसे वे बड़ी पार्टियों के मोहरे तक बने हैं। अभी की आपसी लड़ाई, खासकर बिमल गुरुंग की पलटीमारी के चलते है। 2017 के गोरखालैंड आंदोलन में 104 दिनों के बंद के दौरान भारी हिंसा, तोड़फोड़ और मुकदमेबाजी की दौर में गुरुंग भूमिगत हो गए। उनका मोर्चा टूट गया। यह लड़ाकों की सेना की दूसरी बड़ी टूट थी।

उद्देश्य गोरखालैंड हासिल करना है, तो आपसी टकराहट क्यों?

2007 में बिमल गुरुंग ने सुभाष घीसिंग से अलग होकर अपनी पार्टी बनाई थी। उनकी पार्टी के टूटे गुट के मुखिया विनय तामंग बने। वे ममता के साथ हुए। गुरुंग भाजपा के साथ रहे। भाजपा जीती। मगर चुनाव के बाद अवतरित हुए गुरुंग, ममता के साथ दिखे। लोग, उनके यू-टर्न की वजह नहीं जान पाए। तरह-तरह की चर्चा। वैसे वे इलाके में घूमकर लोगों को समझा रहे हैं कि कैसे भाजपा ने गोरखालैंड के साथ ठगी की और इसलिए उन्होंने भाजपा को छोड़ दिया। गोरखालैंड के मसले पर वे तामंग गुट को खारिज करते हैं और तामंग उनको। मगर दोनों पब्लिक को यह नहीं समझा पा रहे कि जब उनका उद्देश्य गोरखालैंड हासिल करना है, तो आपसी टकराहट क्यों?

मन घीसिंग, अपना ‘गोरखालैंड’ भाजपा में देखते हैं। और भाजपा ‘गोरखालैंड’ को ‘परमानेंट पॉलिटिकल सॉल्युशन’ के रूप में परिभाषित कर रही है। इस सॉल्युशन में होगा क्या, भाजपाई स्पष्ट तौर पर नहीं बोलते। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष भले गोरखालैंड की तरफदारी को नकारें, लेकिन पार्टी के दूसरे बड़े नेता इस मसले को जिंदा रखने के तरफदार रहे हैं। गोरखा समुदाय की 11 जातियों को जनजाति का दर्जा देने की मांग की आवाज, चुनाव के साथ तेज है। यह भाजपा का पुराना वादा है, जो पूरा नहीं हुआ। भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय ने गोरखा को नेपाली कह दिया। इसे खासकर विनय तामंग ने खूब भुनाया। पहाड़ के लोग खुद को पूरी तरह भारतीय मानते हैं।

पिछले विधानसभा में टीएमसी को तीनों सीटों पर मिली हार

ममता बनर्जी ने भी शुरू से गोरखा समुदाय को तुष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 2016 में अलग-अलग गोरखा जातियों के लिए विकास बोर्ड बनाए। कालिम्पोंग जिला बना। गोरखा समुदाय के लोग राज्यसभा भेजे गए, लेकिन चुनावी लिहाज से उनको इन सबका शायद ही कोई फायदा हुआ। पिछले विधानसभा चुनाव में टीएमसी पहाड़ की तीनों सीटों पर हार गई थी। पहाड़ लड़ाकों का ही रहा है। 1996 से 2006 तक तीनों विधानसभा सीटों पर सुभाष घीसिंग के गोरखा नेशनल लिबरेशन फ्रंट का कब्जा रहा। तब बंगाल में कम्युनिस्टों का शासन था।

2011 और 2016 के विधानसभा चुनाव में बिमल गुरुंग के गोरखा जनमुक्ति मोर्चा ने घीसिंग के फ्रंट को हरा दिया। लड़ाकों के आपस की यही लड़ाई 1907 में जन्मे और 1986 से जोर पकड़े अलग राज्य के आंदोलन को नतीजे के तौर पर दार्जिलिंग गोरखा हिल काउंसिल से लेकर गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन तक ही सीमित रखा। गोरखालैंड के लिए पुलिस (जीएलपी) तक की बहाली हो गई थी। जवानों को कुछ दिनों तक 1500 रुपया महीना (वेतन) भी मिला। गोरखालैंड साइनबोर्ड तक पर चस्पां है। जमीन पर कभी उतरेगा भी कि नहीं, यह चुनाव बताएगा।

मधुरेश
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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