शिक्षा ग्रहण करने के साथ-साथ ज्ञान को व्यवहारिक रूप में लाने को उसका प्रयोग भी होना जरूरी है, जो व्यति केवल किताबी ज्ञान पर निर्भर रहता है उसे व्यवहारिक दुनिया में जीने के लिए अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इस विषय में एक लघु कथा जिसके अनुसार व्यति केवल प्रयोग करके ही अपने जीवन को सफल बना सकता है। कथा के अनुसार एक संत ने अपने दो शिष्यों को दो डिब्बों में मूंग के दाने दिए और कहा: ये मूंग हमारी अमानत हैं। ये सड़े गले नहीं बल्कि बढ़े-चढ़े यह ध्यान रखना। दो वर्ष बाद जब हम वापस आयेंगे तो इन्हें ले लेंगे। संत तो तीर्थयात्रा के लिए चले गये। इधर एक शिष्य ने मूंग के डिब्बे को पूजा के स्थान पर रखा और रोज उसकी पूजा करने लगा। दूसरे शिष्य ने मूंग के दानों को खेत में बो दिया। इस तरह दो साल में उसके पास बहुत मूंग जमा हो गये। दो साल बाद संत वापस आए और पहले शिष्य से अमानत वापस मांगी तो वह अपने घर से डिब्बा उठा लाया और संत को थमाते हुए बोला, गुरूजी !
आपकी अमानत को मैंने अपने प्राणों की तरह संभाला है। इसे पालने में झुलाया, आरती उतारी-पूजा अर्चना की। संत बोले: अच्छा ! जरा देखूं तो सही कि अन्दर के माल का क्या हाल है? संत ने ढकन खोलकर देखा तो मूंग में घुन लगे पड़े थे। आधे मूंग की तो वे चटनी बना गये, बाकी बचे- खुचे भी बेकार हो गये। संत ने शिष्य को मूंग दिखाते हुए कहा: क्यों बेटा! इन्ही घुनों की पूजा-अर्चना करते रहे इतने समय तक! शिष्य बेचारा शर्म से सिर झुकाये चुपचाप खड़ा रहा। इतने में संत ने दूसरे शिष्य को बुलवाकर उससे कहा: अब तुम भी हमारी अमानत लाओ। थोड़ी देर में दूसरा शिष्य मूंग लादकर आया और संत के सामने रखकर हाथ जोड़कर बोला: गुरूजी! यह रही आपकी अमानत। संत बहुत प्रसन्न हुए और उसे आशीर्वाद देते हुए बोले: बेटा ! तुम्हारी परीक्षा के लिए मैंने यह सब किया था। मैं तुम्हें वर्षों से जो सत्संग सुना रहा हूं उसको यदि तुम आचरण में नहीं लाओगे, अनुभव में नहीं उतारोगे तो उसका भी हाल इस डिब्बे में पड़े मूंग जैसा हो जायेगा।