सब लेटे हैं पटरी पर

0
500

मैं तय नहीं कर पा रहा कि लॉकडाउन के इस दौर में मैं अपने कॉलम में क्या लिखूं। टीवी खोला तो सामने जो कुछ दिखाया जा रहा था उसे देखकर मैं हिल गया। खबर के अनुसार महाराष्ट्र से अपने घर मध्यप्रदेश जाते समय कुछ मजदूर उस रेल की पटरी पर सो गए थे जो उनका रास्ता थी। जिसके रास्ते से वे अपने घर तक पहुंचने की उम्मीद में थे। उन्हे ख्याल था कि ट्रेने बंद है तो यही सो जाते है। लेकिन एक मालगाड़ी पटरी पर दौड़ती हुई तो सोए हुए लोगों को कुचलती चली गई। इस दर्दनाक हादसे में 16 मजदूर मारे गए व कुछ मजदूर इस हादसे में घायल हुए। रेलवे लाइन पर बिखरी हुई रोटियां थी जो संभवतः उन्हें रास्ते में किसी ने दी होगी व उन्होंने अपने मौजूदा से भी बुरे समय की भूख के लिए उन्हें बांध कर रखा होगा। वे पटरी पर बिखरी पड़ी थी।

तब तक मेरे सामने चाय व बिस्कुट आ गए। सच कहूं तो जो कुछ देखा उसके बाद कुछ भी खाने की इच्छा नहीं रही। एबीपी चैनल पर ब्रजेश राजपूत की रिपोर्ट चल रही थी। उन्हें मैं उनकी पुस्तकों के जरिए जानता हूं हालांकि उनसे आज तक नहीं मिला। वे मानवीय संवेदनाओं के शब्दों में व्यक्त करने में माहिर है। मैंने जो कुछ देखा व सुना उससे एक बहुत पुरानी बात याद आ गई। जब पत्रकारिता के पाठयक्रम में दाखिला लिया था तो हमें एक बात पढ़ाई गई थी कि तस्वीर व शब्दों में सबसे बड़ा अंतर यह होता है कि जो बात हम हजार शब्दों में भी नहीं कह पाते हैं वह एक तस्वीर व्यक्त कर देती है।

ब्रजेश राजपूत तो पटरी के फोटो व अपनी रिपोर्ट के सहारे त्रासदी को ताजा कर रहे थे। यह देखकर मुझे याद हो आई और तस्वीरे। मुझे अपने जीवन में तीन तस्वीरों ने सबसे ज्यादा झिंझोड़ा है। इनमें से पहली तस्वीर भोपाल के गैस कांड के बाद इंडिया टुडे पत्रिका में छपी वह तस्वीर थी जिसमें इस कांड में मारी गई एक छोटी सी बच्ची की आंखों के पास से . मिट्टी हटाते हुए संभवतः किसी परिजन को दिखा गया था। उसके बाद जिस फोटोग्राफ ने मुझे सबसे ज्यादा विचलित किया वह कुछ साल पूर्व सीरिया में आईएस के आतंक के कारण जान बचाकर भागने वाले लोगों के बारे में थी। इसके एक चार साल की बच्ची की लाश थी। फिर शायद एक पूरे परिवार के समुद्र में डूबकर मरनेऔर एक बच्चे की लाश के समुद्र तट पर बहकर आने की थी। तमाम चित्र दिल को दहला देने वाली तस्वीरे।

अब भारत की तस्वीरे। व्यासजी समेत तमाम बुद्धिजीवी हालात के बारे में जो कुछ लिख रहे हैं उसे पढ़कर यही लगता है कि फिलहाल इंसान के लिए जीवित बचा रहना बहुत बड़ी चुनौती बन गया है। सरकार ने बिना यह सोचे कि जिन मजदूरों के कामकाज बंद हो जाएंगे तो अपना जीवन पालन कैसे करेंगे उनकी वापसी की तमाम संभावनाएं व साधन समाप्त कर दिए। मेरे घर पर काम करने वाला सेवक लाकडाउन होते ही अपनी मां का निधन हो जाने पर उत्तराखंड स्थित अपने गांव गया था।

उसका फोन आया कि वहां से वापसी का कोई इंतजामॉ नहीं है। जो इक्का दुक्का गाड़िया आ सकती है उन्हें हरिद्वार होते हुए आना पड़ेगा व यहां रेड जोन घोषित किया जा चुका है व वहां से होकर गुजरने की किसी को इजाजत ही नहीं है। आम इंसान खुलकर कहने लगा है कि हजारों मील दूर स्थित अपने घरों के लिए पैदल चलने के अलावा उनके पास कोई और विकल्प नहीं है।. या तो वे भूख से मर जाएंगे या कोरोना से। दोनों ही हालातें में उन्हें मरना ही है। इसलिए वे अपनी जान हथेली पर घर जा रहे है। लोगगर्भवती महिला को और छोटे बच्चों के साथ घरों से निकल पड़े हैं।

मोदी के लोगों की दलील थी कि इस देश में कोई भी भूखा नहीं मरता है। लेकिन आपने देखा होगा कि कैसे लोग घर जा रहे इन लोगों को खाना खिला रहे हैं। इक्का दुक्का अपवादों की दलील दी जा रही है? पर घरों को जाने वाले लोगों को पेट भरने के लिए भी रोटी कितनी जरुरी है इसका उदाहरण, महाराष्ट्र में रेल दुर्घटना में मारे गए लोगों की पटरियों पर फैली रोटी की तस्वीर देखकर मिल जाता है।

देश के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल एम्स का निदेशक कह चुका है कि बुरे हालात तो हमें बारिश के दौरान देखने को मिलेंगे। मानो कह रहे हो कि अभी तो यह अंगड़ाई है आगे और लड़ाई है। जब हमारे देश का बंटवारा हुआ था तब मैं पैदा नहीं हुआ था। मगर दूसरे देश को पालयन करने वाले लोगों की पीड़ा का अनुमान अब लगा सकता हूं। आज जब बड़ी तादाद में पुलिस से बचते हुए लोगों को कतारों में अपने घरों को जाते देखता हूं तो मुझे देश के बंटवारे सहितद तमाम तरह के पलायन की याद आ जाती है।

अंतर सिर्फ इतना है कि उस समय जान बचा कर भागते हुए लोगों के पास अपनी बैलगाड़ी व सरकारी रेलगाड़ी इस्तेमाल करने का विकल्प था। इस समय तो वह भी नहीं है। सब अपनी जान बचाकर भाग रहे हैं। ऐसे में किसी के द्वारा सोशल मीडिया पर जाने माने उद्योगपति रतन टाटा के भेजे गए विचार बहुत हिम्मत बंधाते हैं कि हमे कुछ समय के लिए अपनी हर सुविधा, ऐशो आराम, कमाई आदि को भूल जाना चाहिए क्योंकि हमारा लक्ष्य एक साल तक सिर्फ अपनी जान बचाना होना चाहिए। रतन टाटा ने कभी गरीबी व भूख नहीं देखी है। किंतु आज जीवन का सबसे बड़ा सत्य अपनी जिंदगी बचाना है अगर जिंदा रहेंगे तभी तो काम करने की सोंचेगे। वैसे भी माना जाता है कि कोरोना ने 60 साल से ज्यादा के आयु वाले लोगों की ऊपर जाने की सूची जारी कर दी है और इनके नाम प्राथमिकता सूची में शामिल हैं।

विवेक सक्सेना
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here