इस बात की कल्पना किसी दुःस्वप्न में भी नहीं की जा सकती थी कि कोई ऐसा समय आएगा जब लोग देश की राजधानी दिल्ली और वित्तीय राजधानी मुंबई में स्वयं को सबसे ज्यादा असुरक्षित मानेंगे। जिस तरह के हिला देने वाले दृश्य अस्पतालों, श्मशान-घाटों और कब्रिस्तानों में देखने को मिल रहे हैं, वे पूरी व्यवस्था के विफल हो जाने का आज तक का सबसे डरावना प्रमाण हैं। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि राजधानी दिल्ली के प्रमुख अस्पताल में एक बेड पर बेसुध मरीज पड़ा होगा और बगल वाले बेड पर एक शव? मरीजों के वॉट्सऐप मैसेज और विडियो सामने आ गए हैं जिनमें वे बता रहे हैं कि उनको बेड पर रख दिया गया है, लेकिन कोई पूछने वाला नहीं। वे मैसेज कर रहे हैं कि आईसीयू में कोई डॉक्टर नहीं आता। मरीज काल-कवलित हो जा रहे हैं, उनके रिश्तेदारों को बताया नहीं जा रहा। बच गए तो चमत्कार राजधानी दिल्ली के दो अस्पतालों एलएनजेपी और सफदरजंग के कर्मचारियों के ऑडियो वायरल हैं जिनमें वे कह रहे हैं कि यहां कोई मरीज मत लाओ, सब मर जाएंगे और लाश के लिए छटपटाना पड़ेगा।
मुंबई में भी कूपर, केईएम, जसलोक से लेकर महानगरपालिका के ट्रॉमा सेंटर तक के स्टिंग सामने आ चुके हैं जिनसे साफ हो जाता है कि यहां अगर भर्ती हुए और बच गए तो चमत्कार है, अन्यथा मरना तो है ही। महाराष्ट्र के ही एक शहर जलगांव का जिला अस्पताल कोविड स्पेशल अस्पताल घोषित है। एक व्यक्ति टीवी पर सामने आकर पूरी दर्दनाक कथा बता चुका है कि किस तरह उसकी दादी और मां इलाज के अभाव में वहां मर गईं। इनमें से 82 वर्ष की बूढ़ी दादी 2 जून को अस्पताल के वॉर्ड से गायब हो जाती हैं और 10 जून को उनका शव वॉशरूम में गिरा मिलता है। एक हफ्ते से ज्यादा वह बुजुर्ग महिला वॉशरूम में पड़ी रहीं, लेकिन किसी को खबर नहीं। यह एक उदाहरण स्थिति की भयावहता को स्पष्ट करने के लिए पर्याप्त है। आपको विश्वास न हो तो आप दिल्ली और महाराष्ट्र सरकार द्वारा जारी हेल्पलाइन नंबरों पर फोन करिए। काफी संभावना है कि आपको कोई सहायता नहीं मिलेगी और ज्यादा सवाल करने पर फोन काट दिए जाएंगे। प्राइवेट अस्पतालों के लिए कोविड-19 लूट का अवसर बन गया है।
दिल्ली सरकार ने एक ऐप जारी किया। कहा गया कि इस ऐप से सबको यह जानकारी मिल जाया करेगी कि किस अस्पताल में कितने बेड हैं। पत्रकारों ने उन अस्पतालों की खोजबीन शुरू की तो सच दिल दहलाने वाला था। कुछ कह रहे हैं कि यहां कोई बेड नहीं है, कुछ यह कि यहां कोविड वॉर्ड बना ही नहीं, कोई कह रहा है कि वेंटिलेटर हमारे पास नहीं हैं तो हम कोविड मरीज को कैसे ले सकते हैं! फाइव स्टार अस्पतालों का स्टिंग सामने आ गया है जिसमें वे किसी मरीज को बेड देने के लिए पहले नकद जमा कराने की मांग करते हैं, जो चार से सात लाख रुपये तक है। मृत्यु के बाद शव को गरिमा और सम्मान देने की परंपरा हर मजहब में सदियों से चली आ रही है। अस्पताल में शवों के साथ व्यवहार के लिए बाजाब्ता कानून हैं। अस्पतालों से आए दृश्य शवों के अकल्पनीय अपमान की गवाही दे रहे हैं। कहीं दो कर्मचारी शव को लाकर कचरे की पेटी में डालते दिख रहे हैं। रोते-बिलखते परिजन शवों के लिए इधर से उधर भटक रहे हैं, लेकिन उनको कई-कई दिनों तक सही सूचना नहीं मिलती।
मुंबई के कूपर अस्पताल का एक दृश्य वायरल है जिसमें शवों को कैजुअल्टी विभाग में और उसके बाहर कतारों में प्लास्टिक से लपेटकर रख दिया गया है और लोग उधर से ही आ जा रहे हैं। केईएम अस्पताल में बरामदे पर एक कतार में शव रखे हैं और यह आम रास्ता है। एक-एक वाहन में एक के ऊपर एक कई शवों को रखकर श्मशान और कब्रिस्तान पहुंचाया जा रहा है। इन सारी स्थितियों का निष्कर्ष यह है कि अगर आप या आपके कोई रिश्तेदार कोविडग्रस्त हो गए तो भूल जाइए कि आपको स्वास्थ्य महकमे से मानवीय व्यवहार मिलेगा। इस कुव्यवस्था के लिए किसको जिम्मेदार माना जाए? प्रधानमंत्री को भी पता है कि सरकारी स्वास्थ्य महकमे का बड़ा हिस्सा गैरजिम्मेदारीपूर्ण बर्ताव करता है। उन्हें निजी अस्पतालों की लूट का भी पता होगा। किंतु प्रधानमंत्री होने के नाते उनको काम इन्हीं से लेना है। उन्होंने स्वास्थ्यकर्मियों के लिए पूरे देश की जनता से ताली, थाली और घंटी बजवाई। यही नहीं उनकी सुरक्षा के लिए अध्यादेश के रूप में कानून तक ला दिया। इसके बावजूद यदि वे आपराधिक व्यवहार कर रहे हैं तो उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई क्यों नहीं होनी चाहिए? स्वास्थ्य राज्यों का विषय है, लेकिन ऐसी आपदा की घड़ी में केंद्र की भी तो जिम्मेदारी है।
राज्य सरकारों और स्वास्थ्य महकमे के साथ केंद्र सख्ती से क्यों नहीं पेश आ रहा? सामान्य मरीज कहां जाएं कोविड के इस दौर में अन्य मरीजों के लिए और बड़ी आफत है। अगर आपको किसी कारण बुखार है तो आप किसी अस्पताल, प्राइवेट क्लिनिक यहां तक कि टेस्ट लैब में भी प्रवेश नहीं कर सकते। बाहर एक कर्मचारी थर्मो स्कैन लगाता है और बुखार दिखते ही आपको वापस कर देता है। किसी तरह प्रवेश पा गए तो कई जांच ऐसी है जिसके साथ कोविड टेस्ट कराने को अस्पतालों में अनिवार्य बना दिया गया है और उसकी फीस 4500 ही नहीं, साथ में पीपीई किट का 11 हजार भी आपको देना होगा। स्थिति यह है कि दूसरी सामान्य बीमारियों के मरीज भी इलाज नहीं मिलने के कारण मर रहे हैं। एक सामान्य सिद्धांत है कि स्वास्थ्य महकमे में गेट पर खड़े सिक्यॉरिटी गार्ड से लेकर अस्पताल अधीक्षक तक तमाम अधिकारियों-कर्मचारियों को किसी अन्य विभाग के मुकाबले ज्यादा संवेदनशील होना चाहिए। हमारा स्वास्थ्य विभाग विपरीत आचरण कर रहा है। इसे संवेदनशील कौन बनाएगा? विचारणीय यह भी है कि इसके राजनीतिक स्वामियों यानी सरकारों के साथ किस तरह का व्यवहार होना चाहिए।
अवधेश कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)