कहीं बिजली विलासिता की वस्तु ना हो जाए

0
470

कुछ मुख्यमंत्रियों के राजी न होने के कारण और शायद कृषि संबंधी बिलों के विरोध को देखते हुए भी सरकार ने बिजली बिल-2020 को मानसून सत्र में संसद के पटल पर प्रस्तुत नहीं किया। बिजली की दरों में बढ़ोतरी बर्दाश्त करने की मन स्थिति में किसान अभी बिल्कुल नहीं है। परंतु निकट भविष्य में यह बिल आना ही है, इसलिए देश में बिजली उत्पादन और वितरण के सवाल को सही संदर्भ में देखा जाना चाहिए। दिलचस्प है कि बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर का नाम संविधान-निर्माता के तौर पर तो लिया जाता रहा है लेकिन इस बात को लेकर खास चर्चा नहीं होती कि आजादी के बाद वे बिजली मंत्रालय भी देख रहे थे और बिजली आपूर्ति अधिनियम-1948 का श्रेय उन्हें ही जाता है। जब विभिन्न मदों का केंद्र और राज्य सरकारों के बीच बंटवारा किया जा रहा था तो आंबेडकर ने बिजली को समवर्ती सूची सूची में रखा। इसका अर्थ यह हुआ कि बिजली के क्षेत्र में कानून बनाने का हक केंद्र और राज्य दोनों को दिया गया। 1948 में बने इसी कानून के तहत राज्य बिजली बोर्डों का गठन किया गया जिन्हें बिजली के उत्पादन की क्षमता बढ़ाने, ट्रांसमिशन लाइनों के नेटवर्क का विकास करने और दूर-दराज के गांवों में बिजली पहुंचाने की जिमेदारी दी गई।

इन बिजली बोर्डों की आर्थिक सुरक्षा का प्रावधान बिजली आपूर्ति अधिनियम, 1948 में धारा 59 द्वारा रखा गया था जिसमें कहा गया था कि हर राज्य यह सुनिश्चित करे कि उसके बिजली बोर्ड को कम से कम 3 प्रतिशत रिटर्न जरूर मिले। यह प्रावधान भी रखा गया था कि अगर एक राज्य सरकार किसी धार्मिक स्थल को या किसी खेल के मैदान को मुफ्त बिजली देना चाहती है तो बेशक दे परंतु इसका खर्च बिजली बोर्ड पर न डाला जाए। राज्य सरकार इसका भुगतान संबंधित बिजली बोर्ड को करे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बिजली बोर्डों को राजनीतिक दखलंदाज़ी के कारण कई बार कई स्थानों पर मुफ्त बिजली देनी पड़ी। दूसरे, दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों में, जहां प्रति वर्ग किलोमीटर कम आबादी रहती है, बिजली सप्लाई करना बहुत महंगा पड़ता है, परंतु इसे सार्वजनिक हित मानते हुए और नफे-नुकसान की परवाह न करते हुए राज्य बिजली बोर्डों ने इस जिमेदारी को बखूबी निभाया। 90 प्रतिशत गांवों में बिजली आ चुकी है, हालांकि सरकारें अब जरूर सार्वजनिक हित के कार्यों को तिलांजलि देने लगी हैं। बिजली बोर्डों में व्याप्त भ्रष्टाचार, बिजली की चोरी और आर्थिक नुकसानों का हवाला देते हुए 2003 में वाजपेयी सरकार बिजली कानून-2003 लेकर आई जिसने सबसे पहले बिजली आपूर्ति बिल-1948 को रद किया।

इसका एक कारण यह भी था कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक ने भारत को ऋण देने के लिए यह शर्त रखी थी कि ऊर्जा क्षेत्र को निजी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए खोल दिया जाए। बिजली बोर्डों को भंग करने, उनका कॉरपोरेटीकरण करने और फिर उनकी संपत्तियों को बेचने का काम एनडीए सरकार ने अपने एजेंडे में शामिल कर लिया था। हम जानते हैं कि बिजली को अन्य उत्पादों की तरह दुकान पर रखकर नहीं बेचा जा सकता। जैसे ही वह पैदा होती है, उसका फौरन इस्तेमाल करना होता है। इसीलिए बिजली की भावी जरूरत का अनुमान लगाना जरूरी हो जाता है और उसमें निवेश भी उसी अनुमान के अनुसार करने होते है। केंद्रीय बिजली प्राधिकरण ने 2019-20 में बिजली की खपत का जो पूर्वानुमान लगाया, वह वास्तविक मांग से 40 प्रतिशत अधिक था। नतीजतन डिस्कॉमों (डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियों) को भारी नुकसान हुआ। विडंबना यह कि सरकार ने अपनी गलती मानने की बजाय डिस्कॉमों को अक्षम घोषित कर दिया। इसलिए पावर सप्लाई की व्यवस्था में स्थायित्व और विश्वसनीयता के लिए योजनाबद्ध ढंग से काम करना अत्यंत आवश्यक है। बहरहाल, समाज की जरूरतों का ध्यान रखते हुए कुछ अहम प्रश्नों पर गौर करना होगा।

उदाहरण के लिए, क्या बिजली से लाभ कमाना एकमात्र लक्ष्य है? अगर राज्य बिजली बोर्डों को पूरी तरह खत्म कर दिया गया तो गांवों में बिजली कौन पहुंचाएगा? क्या बिजली की दरें देश की आम जनता की खर्च करने की क्षमता पर निर्भर करेंगी, क्या ये बाजार पर छोड़ दी जाएंगी? क्या उन गरीब उपभोक्ताओं को सब्सिडी दी जाएगी जिनकी क्षमता महंगी बिजली खरीदने की नहीं है? अगर कुछ लोग कम रेट पर अनियमित बिजली से संतुष्ट हैं, तो क्या उन्हें यह विकल्प दिया जा सकता है कि वे बिना किसी रुकावट के महंगी बिजली खरीदें? आज देश का आम नागरिक बिजली पर निर्भर है, साथ ही वह किसान भी जो देश के लिए अन्न उगाता है। उसे बिजली चाहिए ताकि वह बोरवेल और पंप लगा सके। आंध्र प्रदेश की सरकार खेतों में बिजली की खपत को मापने के लिए 17 लाख बिजली के मीटर खरीदने जा रही है। इस पर लगभग 2000 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है। यही धन वह किसान के लिए पानी की व्यवस्था करने में लगा सकती है।
किसान को अगर नहरों से या वर्षा से पानी नहीं मिलता तो मजबूरी में उसे पंप लगाना पड़ता है। नहरों का पानी सभी किसानों को मिले तो उन्हें सिंचाई के लिए बिजली की जरूरत ही नहीं होगी। 2003 का बिल पास होने के बाद कई राज्य सरकारों ने बिजली उत्पादन व वितरण के लिए निजी कंपनियों के साथ अनुबंध किए परंतु दुर्भाग्यवश वे प्रतिस्पर्धी बोलियों पर आधारित नहीं थे। बहुत सी डिस्ट्रिब्यूशन कंपनियां करोड़ों रुपये इन निजी कंपनियों को इन अनुबंधों के चलते मजबूरी में दे रही हैं। सार्वजनिक हित इसी में है कि ऐसे अनुबंधों में संशोधन किया जाए। परंतु ऐसे संशोधनों की बजाय बिजली बिल2020 में इन अनुबंधों को सख्ती से लागू करने और समयबद्ध भुगतान करने का प्रावधान रखा गया है। इस बिल में बिजली वितरण की पूरी व्यवस्था का निजीकरण करने और तमाम सब्सिडियों व क्रॉससब्सिडियों को खत्म करने का प्रावधान है। इससे डर यह है कि जल्द ही बिजली विलासिता की वस्तु न हो जाए, जिसका बाकी सुविधाओं की तरह केवल अमीर लोग ही उपयोग कर पाएं।

अजय कुमार
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here