साधु-संत जब भी मिलते हैं तो वे समाज के हित के बारे में ही सोचते हैं। भारद्वाज ऋषि और याज्ञवल्य ऋषि से जुड़ा ऐसा ही एक किस्सा है। पुराने समय में भारद्वाज नाम के एक ऋषि प्रयाग में रहते थे। वहां एक बार माघ महीने में कई संतों का मिलन हुआ। बहुत सारे संत प्रयाग आए हुए थे। जब सभी संत वापस अपने- अपने आश्रम लौट रहे थे, तब भारद्वाज ऋषि ने याज्ञवल्य नाम के ऋषि को रोक लिया। भारद्वाज ने याज्ञवल्य ऋषि से कहा, कि सभी साधु-संत माघ महीने का स्नान करके लौट गए हैं, लेकिन मैं आपको अभी जाने नहीं दूंगा। उन्हें ऊंचे स्थान पर बैठाया और फिर बोले, कि मुझे बड़ा संकोच हो रहा है, लेकिन मैं आपके सामने तो कह सकता हूं। मेरी उम्र बीत रही है, लेकिन मैं अभी तक रामकथा का संदेश समझ नहीं सका हूं। राम कौन हैं, इस पूरे सिद्धांत को आपसे समझना चाहता हूं। मैं आपसे रामकथा सुनना चाहता हूं।
याज्ञवल्य ने कहा, कि भारद्वाज जी आप मन, वचन और कर्म, तीनों से भत हैं। पूरी तरह ईमानदार और समझदार हैं, लेकिन सवाल तो ऐसे पूछ रहे हैं, जैसे आप कोई मूर्ख हैं। आप कुछ जानते नहीं हैं, लेकिन आप ये प्रश्न मुझसे इसलिए पूछ रहे हैं, ताकि मेरे मुंह से रामकथा बुलवाकर सारे संसार को ये कथा सुनने को मिल जाए। सबका भला हो जाए। यही संत की विशेषता है। इसके बाद याज्ञवल्य जी ने भारद्वाज ऋषि को वही रामकथा सुनाई, जो शिवजी ने पार्वती जी को सुनाई थी। आज सारा संसार उसी राम कथा का आनंद ले रहा है। सीख. इन दोनों संतों ने अपने आचरण से हमें ये संदेश दिया है कि हमेशा ऐसे काम करने चाहिए, जिनसे दूसरों का भला होता है। साधु-संत होने का अर्थ ये नहीं है कि हम समाज से बाहर रहते हैं तो हमें समाज में हो रही घटनाओं से कोई लेना-देना नहीं है। साधु-संत समाज से अलग रहते हैं, लेकिन हर एक काम दूसरों के हित के लिए ही करते हैं।
पं. विजयशंकर मेहता