विरासत की नाप-तौल ना करें

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‘अगर आप ईंट से पूछें, आप क्या चाहती हो, तो वो कहेगी, मुझे आर्च (मेहराब) पसंद है। आप कहोगे कि ये तो महंगा पड़ेगा, तो फिर ईंट आपसे क्या कहेगी? मुझे फिर भी आर्च बनना ही पसंद है।’ यह वार्तालाप प्रसिद्ध शिल्पकार लूई कान खुद ईंटों से करते थे और अपने छात्रों को भी यह सलाह देते थे कि आप जिस मटेरियल से इमारत बना रहे हैं, उससे रिश्ता जोड़िए।

क्योंकि हर ईंट जानती है कि उसके भाग्य में क्या लिखा है। अब यह पढ़ते हुए आप थोड़ा चकरा गए होंगे। क्या यह आदमी पागल था? हां, शायद अपनी कला के प्रति जिसे इतनी श्रद्धा हो, वो समाज की आंखों में पागल ही कहलाता है। पर इसी जुनून की वजह से लूई कान की बनाई हुई इमारतें आज दुनियाभर में मशहूर हैं।

उनका डिजाइन किया हुआ IIM अहमदाबाद का कैंपस एक लाजवाब संरचना है। मैंने उस कैंपस में दो यादगार साल बिताए और पहले दिन से आखिरी दिन तक मुझे अहसास था कि ये होस्टल सिर्फ होस्टल नहीं, इसमें कुछ खास है। वहां की बिल्डिंग्स आपके अंदर भाव पैदा करती हैं। मुझे उनसे प्रेरणा मिली कि ‘थिंक बिग’। यानी कि बड़े सपने देखो, अपने अनोखे अंदाज में।

वास्तुशिल्प एक ऐसी कला है जो आधुनिक युग में काफी हद तक गायब हो गई है। हमारे पूर्वज इसे इतना ज्यादा महत्व देते थे कि हजारों साल बाद भी, उनके बनाए हुए मंदिर और महल हमें प्रभावित करते हैं। पुरातन काल की अनेक इमारतें, जैसे कि मिस्र के पिरामिड, ग्रीस का पार्थेलन और एलोरा का कैलाश मंदिर, आज भी हमें अचंभे में डाल देती हैं।

उस जमाने में न तो ट्रक थे, न जेसीबी। पत्थर को तोड़कर साइट पर लाना ही एक बहुत बड़ा अचीवमेंट था। एलोरा के मंदिर का सृजन तो एक ही पर्वत की नक्काशी से हुआ। काम इतना परफेक्ट कि ऊपर से नीचे तक कोई जोड़ नहीं। जिस शिल्पकार ने डिजाइन किया, उसने एक-एक एंगल कैसे कैलकुलेट किया होगा? और जो लेबर थी, उनके हाथों में क्या जादू था?

खैर, अब इन बातों का क्या फायदा। आजादी के बाद, पिछले 73 सालों में बनी हुई दो-चार बिल्डिंग भी गिनना मुश्किल है, जिनमें कोई भव्यता, कोई सुंदरता का आभास हो। जब देश का सबसे धनी इंसान अपना घर बनाता है, तो वह अंदर से तो बेहतरीन है, मगर बाहर से जो देखता है, उसे एक स्टील और ग्लास से बनी हुई भद्दी और बेजान इमारत नजर आती है।

तो ये इस जमाने का मंत्र है: बी प्रैक्टिकल। जितना FSI (फ्लोर स्पेस इंडेक्स) मिल रहा है, उसका पूरा उपयोग करो। जितने फ्लैट्स बनाकर बेच सकते हो, वो टार्गेट पूरा करो। जब शिक्षा संस्थान बिल्डिंग बनाते हैं, वो भी असेंबली लाइन वाली सोच से कमरों की प्लानिंग करते हैं। वो पहलू जिसे पैसे के तराजू में नहीं तौला जा सकता, यानी कि ‘द इंटेंजिबल’, उसकी कोई कद्र नहीं।

मटेरियल भी हम वो इस्तेमाल करना चाहते हैं, जिनका फैशन है। जहां पहले हवा के रुख का ध्यान रखा जाता था, अब एयर कंडीशनर की टनेज का डिस्कशन होता है। बाहर के देशों के मौसम और परिस्थितियों के हिसाब से बनाई गई बिल्डिंग्स की फोटो कॉपी, गुड़गांव और मुंबई में आपको भरपूर मिल जाएंगी। और उसी माइंडसेट से अब गांवों में भी घर बन रहे हैं।

सदियों से लोग घर की जमीन और दीवारों पर गोबर का लेप लगाते हैं। इसके पीछे वैज्ञानिक तथ्य है। गोबर थर्मल इंसुलेटर है, इस वजह से गर्मी हो या सर्दी, अंदर का तापमान अनुकूल रहता है। ये डिस्इंफेक्टेंट का भी काम करता है, जिससे कीड़े-मकौड़े गायब। और तो और, ब्रिस्टल यूनिवर्सिटी का कहना है कि गोबर में एंटी-डिप्रेसेंट प्रॉपर्टीज भी हैं। मगर जब तक कोई सफेद चमड़ी वाला ‘ईको-फ्रेंडली’ और ‘सस्टेनेबल’ जैसे लेबल न लगाए, हम पारंपरिक विद्या को नहीं अपनाएंगे। न ही उस दिशा में कोई रिसर्च करेंगे।

आपको अपना सीमेंट और बढ़ता हुआ बिजली का बिल मुबारक हो। लेकिन कम से कम जो इमारतें बन चुकी हैं, जिनमें शान है, और प्राण है, उन्हें तो बचाएं। IIM अहमदाबाद ने अब ऐलान किया है कि लूई कान द्वारा बनाए गए कैंपस की तोड़-फोड़ नहीं होगी। उसे बचाने में और बेहतर बनाने में पैसा और प्रण जरूर लगेगा। मगर वो आगे आने वाली पीढ़ियों की धरोहर है। और विरासत की नाप-तौल करने की गुस्ताखी हम न करें, तो अच्छा है।

रश्मि बंसल
(लेखिका स्पीकर हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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