चैतन्य महाप्रभु बचपन से ही बहुत विद्वान और प्रतिभाशाली थे। उन्होंने 16 वर्ष की आयु में ही व्याकरण शास्त्र और न्याय शास्त्र का पूरा अध्ययन कर लिया था, सारी बातें अच्छी तरह समझ ली थीं। उनके एक मित्र थे पंडित रघुनाथ। पंडित रघुनाथ भी विद्वान थे। उन्होंने भी शास्त्रों का अध्ययन किया और न्याय शास्त्र पर ग्रंथ की रचना की। पं. रघुनाथ को पूरा भरोसा था कि उनका ग्रंथ सभी विद्वान लोग बहुत पसंद करेंगे। इसकी लोकप्रियता खूब बढ़ेगी। प. रघुनाथ जानते थे कि मेरा मित्र चैतन्य भी शास्त्रों का जानकार है तो एक बार उससे भी मेरे ग्रंथ के संबंध में सलाह ले लेनी चाहिए। दोनों मित्र नाव में बैठकर गंगा नदी पार कर रहे थे। उस समय पं.रघुनाथ ने कहा, मित्र ये शास्त्र मैंने लिखा है, तुम एक बार इसे पढ़ लो और कोई कमी हो तो बता देना। चैतन्य महाप्रभु बोले, कि मैंने भी एक शास्त्र की रचना की है। पहले तुम मेरी रचना देख लो। पं. रघुनाथ ने जब चैतन्य द्वारा लिखी रचना को पढ़ा तो वे उदास हो गए। चैतन्य ने पूछा, मित्र या बात है, तुम उदास यों हो गए, या मेरा साहित्य ठीक नहीं है, तुम कुछ टिप्पणी नहीं कर रहे हो।
पं. रघुनाथ बोले, कि इतना अद्भुत साहित्य लिखा है कि मेरे मन में उदासी आ गई। सच तो ये है कि चैतन्यए मैंने भी ठीक इसी विषय पर साहित्य लिखा है, तुम्हारी रचना पढऩे के बाद मैं ये समझ गया हूं कि मेरी पुस्तक को कोई मान्यता नहीं मिलेगी। मेरी मेहनत व्यर्थ हो जाएगी। चैतन्य महाप्रभु ने अपनी रचना ली और उसे गंगा में बहा दिया और बोले, बस मित्र, इतनी सी बात। ख्याति तुम्हें ही मिलेगी। इस कहानी ने एक संदेश दिया है कि जीवन में कभी-कभी त्याग के कठोर निर्णय लेना पड़ते हैं जो आवश्यक हो जाते हैं। एक मित्र के लिए ये एक मित्र का त्याग था। भगवान ऐसे त्याग को लौटाता जरूर है। भले ही उस रचना से चैतन्य को ख्याति न मिली हो, लेकिन अपने त्याग के स्वभाव की वजह से उन्हें पं. रघुनाथ से कहीं ज्यादा ख्याति मिली। जीवन में जब भी त्याग करने का अवसर आए तो त्याग जरूर करें। जब आप इस दुनिया को कुछ देते हैं तो दुनिया बनाने वाला उससे अधिक लौटाता है।
प. विजयशंकर मेहता