अटपटी बातों से करता लाजवाब

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विगत कुछ वर्षों पहले तक के समय में सिर्फ कविता ही लिखता-पढ़ता था। अपने अच्छे दिनों को प्रेम व श्रृंगार रस के माध्यम से काव्य में पिरोया करता रहता था। कवि जैसे-जैसे दुनिया जहान के झंझटों में उतरता गया, उसके कवि ने उससे मुख मोड़ लिया। कहां वह प्रकृति कुमार जैसी बातें करता था और अब उसकी बातों में विकार आने लगे हैं। कवि अब न जाने कौन सी उलटी सीधी, उलजलूल उलझी, तिखी-तिरछी तेड़ी नजर, कटाक्ष, नश्तर पस्तरए अधबीच वाली बातें करने लगा है। कवि के साथियों का उस पर आरोप है कि वह व्यंग्यकार हो गया है। कवि जब कभी कवि था। तो क्या गजब की मन की बातें करता था। अपनी काव्य रचनाओं से मंच सजा- मचा देता था। अब देखो! अपने मन की बात से हटकर जन-जन की बात करता है, लेकिन कवि को स्वयं पता नहीं है कि वह क्या कर रहा है। वह तो अब भी अपने अच्छे दिनों को ही याद करके दिन काट रहा है। कॉलेज के दिनों में कवि बैक-बेंचर था।

अब वह मतदाता के तौर पर मतदान केंद्र की पंति में वोट बैंक के तौर पर खड़ा है। कहीं रेलवे स्टेशन की लाइन में खड़ा है तो कहीं सरकारी कार्यालय के बाबूजी की कुर्सी के सामने मुंह लटकाए। देखो, कवि बैक-बेंचर से आगे बढ़कर मतदाता पंति में खड़ा आम आदमी बन गया है। वह अब कविता नहीं लिखता है। लिखे भी कैसे, उसके पीछे घर के खर्चों के तमाम बिल जो पड़े हैं। कवि से उसके साथी कहते हैं कि वह सरकार की आलोचना क्यों करता है? कवि का कहना है कि उसने किसी सरकार के बारे में कुछ नहीं कहा है। वह तो अधिकांश दिन घर पर बैठकर पकौड़े तल रहा है और अपनी ही सरकार अपनी ही पत्नी का हाथ बंटा रहा है। कवि पर आरोप है कि वह सरकारी कर्मचारियों की कथनी और करनी की चिकनी- चुपड़ी बातें करता है। कवि ने कविता को छोड़कर व्यंग्य की पगडंडी पकड़ ली है। प्रकृति का वर्णन करते करते, वह सामाजिक- राजनीतिक विकृति की चर्चा कर रहा है।

उसे किसने क्षेत्र बदलने की आज्ञा दीघ् उस पर आरोप है कि उसके ही कारण कविता के रसिक कम होते जा रहे हैं। वह अब अपनी कविताएं सिर्फ अपनी ही प्रेमिका-पत्नी को ही सुनाता है। जिससे उसके पड़ोसी परेशान हैं। कहां कवि बहारों की बातें करता था और अब देखो अंध-बहरों को समझाने में लगा है। कवि से सवाल पूछे जा रहे हैं कि उसे क्या पड़ी है? जो हर दिन वह सोशल मीडिया पर नेताओं से प्रश्न कर रहा है। उसे क्या मतलब, जो वह शिक्षा व स्वास्थ्य की स्थिति पर कलम घसीटता है। वह अपनी कविता क्यों नहीं लिखता है? क्या है जो उसे बात-बात पर उकसाता है, जो वह इतना सब कुछ लिखता है। अब तो उसके मित्र भी कहने लगे हैं कि वह पहाड़ों पर चढ़ जाए। वहां उसे कविता लिखने का सुहाना मौसम व सुंदर नजारें मिलेंगे। कवि कहां यहां अपना कवित्व बर्बाद कर रहा है, पर कवि ढीठ हो गया है। कविता जैसे दिव्य मार्ग को छोड़कर कवि ऊबड़ खाबड़ व्यंग्य पगडंडी पर चल निकला है। यह अब आरोप ही नहीं, धीरधीरे सिद्ध भी हो रहा हैं।

भूपेन्द्र भारतीय

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