विकसित महसूस करने के दिन

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अब हमारी उपजाऊ सामाजिक मिटटी में रहकर कोरोना जी की बाहरी कंटीली परत ज्यादा मजबूत हो गई है। मोटी चमड़ी वाले हमारे खास लोगों की तरह, जिन पर किसी भी रोने और खोने का असर नहीं होता। अब तो समान की बात गई है कि बात गलत ही करें और उसके ठीक बोलने का ढोल पीटें। कोरोना की जानदार वापसी के बीच बेशक शमशान में जलने के लिए लाइन लगी है, लेकिन चाइनीज़ मान लिए गए कोरोनाजी का भारतीय वैरियंट भी मैदान में आ गया है। अपना वैरियंट न होने से पिछड़ा हुआ सा लग रहा था। इस मामले में हम अपने पूर्व शासक ब्रिटेन वालों के मुकाबिल आ गए हैं । अमेरिका जैसे देश में बंदे भारतीय वैरियंट की गिरत में हैं । उसके लिए भारतीय वैरियंट से कुश्ती लडऩा ज़्यादा दिलचस्प रहा होगा क्यूंकि यह वैरियंट स्ट्रेन डबल ब्यूटेट है।

रहस्यात्मक यह है कि इसके दो रूप बताए जाते हैं। अब यह तो पता नहीं कि दोनों रूप नर हैं क्या एक मादा, लेकिन मुझे विशवास नहीं अंधविश्वास है कि इसने अपने नए रंग रूप, विश्वगुरुओं की उपजाऊ ज़मीन के खिलाड़ी गिरगिटों से, छवि बदल सकने की महीन प्रेरणा लेकर, दो नहीं कई रूप विकसित कर लिए होंगे और जानबूझकर अभी पता दो का ही बता रहा होगा। कुछ भी हो, आगे आना, आगे बढऩा, आगे निकलना और पहले स्थान पर आना तो विकास ही है । ऐसा करने के लिए बहुत मेहनत लगती है। सबसे खतरनाक वैरियंट ब्रिटेन का माना जाना स्वाभाविक है। ऐसा तो होना ही था, किसी ज़माने में उन्होंने आधी दुनिया पर यूं ही राज नहीं किया। असर तो बाकी रहता ही है। फिर यह भी कहा जा रहा है कि अगर प्रतिस्पर्द्धा हो तो भारतीय वैरियंट वर्तमान से ज़्यादा खतरनाक व संक्रामक हो सकता है।

यहां यह सवाल लाज़मी है कि इसने किस कोचिंग सेंटर में तीखा होना सीखा। अभी तक अपने खतरनाक वार के दो पैंतरे ही दिखाकर बता दिया कि उसकी शैली में कुश्तियाना अनुभव है जिसमें चालाक पहलवान दांव दिखाता कोई और है और वास्तव में कोई और दांव लगाकर कुश्ती जीतने की कोशिश करता है और कितनी बार जीत भी जाता है। देश के अखाड़े में चल रही कुश्ती तो यही दिखाती है। यह एक उपलब्धि ही है, चाहे आधे से ज्यादा लोगों ने मास्क नहीं लगाए, शारीरिक दूरी को सामाजिक दूरी कहते हुए थके नहीं लेकिन कोरोनाजी का भारतीय वैरियंट तो उगा ही दिया। दुनिया को दिखा दिया कि हमने दुनिया के सबसे रहस्यमय कीटाणु को अपने रंग में रंग दिया है और अब इसके प्रमाण भी मिलने शुरू हो गए हैं।

यह हमारी हृदय विशालता का संक्रमण फैलाता नमूना है। अब हमारी उपजाऊ सामाजिक मिटटी में रहकर कोरोनाजी की बाहरी कंटीली परत ज़्यादा मज़बूत हो गई है। मोटी चमड़ी वाले हमारे खास लोगों की तरह, जिन पर किसी भी रोने और खोने का असर नहीं होता। अब तो सम्मान की बात गई है कि बात गलत ही करें और उसके ठीक बोलने का ढोल पीटें। अंधविश्वास को दवाई समझ लेना देशभक्ति घोषित कर दिया गया है। मानवता की लाशों के बीच, राजनीति का झंडा लहराना राष्ट्रीय कर्तव्य हो गया है। नैतिक सम्मान का विषय यह है कि जीवन के प्रति मोह खत्म होता जा रहा है शायद तभी उत्सव मनाने की आदतें छूटती नहीं । वैसे तो मौत को उत्सव मानना पहले से ही स्वीकृत है।

संतोष उत्सुक
(लेखक व्यंगकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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